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________________ ३४७ बाहर कर देता है और काम भी जारी कर देता है पर ( मतवालेके ) हृदय में स्थान नहीं पाता - उसकी प्रतिष्ठा फेशनकी नीव पर होती हैं। जब मतोंकी ये तरह तरहकी तहें बीच में आपडती हैं, तब मनुष्यका मन सत्यमतको अटल सत्यके रूप में ग्रहण नहीं कर सकता । यही कारण है, जो उसका आचरण सर्वत्र सर्वतोभावसे सत्य नहीं होता। जब वह सरलता से अपनी शक्ति और प्रकृतिके अनुकूल, किसी मार्ग के निश्चित करनेका अवकाश नहीं पाता है, तब चक्कर में उड़ जाता है और वारवार दूसरोंकी ही बातों या मतों का पाठ किया करता है । किन्तु अन्त में जब कामका समय आता है --विश्वासको कार्य में परिणत करने का अवसर आता है, तब उसका प्रकृति के साथ विरोध खड़ा हो जाता है; अर्थात् वह कहता मानता कुछ है और करने लगता कुछ है। यदि उसके मन पर अनेक मतोंकी तहें न जमी होतीं, यदि वह अपने स्वभावको आप ही पाता - पुस्तकों या दूसरोंके वचनों द्वारा नहीं, तो उस स्वभाव के भीतर से जो कुछ पाता, वह छोटी बड़ी चाहे जैसी होती, पर होती शुद्ध वस्तु ( खालिस चीज़ ) । यह चीज उसे सम्पूर्ण बल देती सम्पूर्ण आश्रय देती और उसे सर्वतोभावसे काम में लगाये बिना न रह सकती । परन्तु इस समय उसे बड़े भारी गड़बडाध्याय में पड़ जाना पडता है। पुस्तकों का मत, वचनोंका मत, सभाओं का मत, पंचायतियों का मत : इस तरह न जाने कितने मतोंका बोझा लादकर उसे स्थिर लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाना पड़ता है और केवल बड़े बड़े वचनोंका पाठ करते हुए भटकना पड़ता है । और मजा यह कि इस पाठ करने और भटकते फिरने को वह हितकारी कार्य समझता है । इसके लिए वह तनख्वाह पाता हैं; उन वचनों को बेच -- कर धन कमाता है । उसके उक्त वचनोंसे किसीने जरा भी इवर I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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