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मार्ग से बराबर दूर हटता जाता है । पर किया क्या जाय, स्वभावभ्रष्ट या बनाई हुई बातका मोह छोड़ना क्या कोई सहज काम है ? यदि कोई स्थूल चीज़ हो, तो वह हाथोंसे पकड़ कर और पृथ्वीपर पटककर नष्ट की जा सकती है; परन्तु 'बात' या वचनके शरीर पर तो छुरी भी नहीं चलती ! इसी लिए मानवसमाज में 'बात' के कारण जितना रक्तपात हुआ है, उतना राज्य और सम्पत्ति आदिके कारण नहीं हुआ !
समाजकी आदिम सरल अवस्थामें देखा जाता है कि राज्य जो जानता है उसे मानता भी है । उस पर उसकी अटल निष्ठा होती है और इसी लिए वह उसके लिए सहज ही स्वार्थत्याग करना या कष्ट सहना स्वीकार कर लेता है । इसके कई कारण हैं । प्रधान कारण यह है कि आदिम अवस्थामें मनुष्य के हृदय और मन खुले हुए रहते हैं -- तरह तरहके मतों या सिद्धान्तों का परदा उन पर पड़ा हुआ नहीं रहता । अतएव उसके मनमें जितने सत्यको ग्रहण करनेका अधिकार या शक्ति है, उतनेको ही वह ग्रहण करता है और मन जिसे सत्यरूपमें ग्रहण कर लिया उस पर पूरा पूरा विश्वास जमा लिया, उसके लिए हृदय अनायास ही अनेक कष्ट सहन कर सकता है; यह उसके लिए बिलकुल मामूली बात है ।
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पर जब सभ्यताकी जटिल या पेचीदा अवस्थाकी ओर नजर दौड़ाई जाती है, तब मालूम होता है कि इस अवस्थामें मनुष्यका मन खुला हुआ नहीं है; उसपर तरह तरहके मतोंकी सैकड़ों तहें जम गई हैं। कोई चर्चका मत है पर चर्चाका मत नहीं है; कोई सभाका मत है पर घरका मत नहीं है; कोई समूह या पंचायतका मत है पर अन्तरंगका मत नहीं है; कोई मत आँखोंमेंसे आँसुओं को तो बाहर कर देता है पर ज़ेबमेंसे रुपयोंको बाहर नहीं होने देता; कोई मत रुपये भी
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