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हूके बैलके समान घुमाघुमाकर मार रही हैं । असुख और विकलताका यही कारण है। ___ एक पुस्तकसे और एक पुस्तक उत्पन्न हो रही है; एक काव्यग्रन्थसे और एक काव्यग्रन्थका जन्म हो रहा है; एकका मत अनेक मुखोंका आश्रय लेकर हजारों लोगोंका मत बन रहा है । तात्पर्य यह कि नकलसे नकलका प्रवाह चल रहा है । इस तरह मनुष्यके चारों ओर यह पुस्तकों और वचनोंका जंगल सघन होता जाता है और प्राकृतिक जगतसे उसका सम्बन्ध धीरे धीरे विच्छिन्न होता जाता है । अर्थात् इस समयके मनुष्योंके मनमें जितने भाव उत्पन्न होते हैं, उनमेंसे अधिकांश भाव केवल पुस्तकोंके सृष्ट किये हुए होते हैं। इसी कारण वे वास्तविकतारहित होते हैं और मनुष्यके सिर पर भूतके समान चढ़कर उसके मानसिक स्वास्थ्यको बिगाड़ देते हैं, उसे अत्युक्ति या आतिशय्यकी ओर ले जाते हैं और धीरेधीरे सब ही एक ही लकीर पर चलकर सत्यको मिथ्या बना डालते हैं। उदाहरणके लिए 'पेट्रियटिज्म्' ( स्वदेशानुराग ) को ही ले लीजिए । इसके भीतर जितना सत्य था, उसे लोगोंने स्थिर न रहने दिया, उस पर जिसके जीमें आया उसीने रोज़ रोज उछल कूद मचा कर उसकी रुई धुन डाली और अन्तमें एक मोटा ताजा झूठ बनाकर खड़ा कर दिया ! अब इस बनाकर तैयार की हुई बातको सत्य बनानेके लिए न जाने कितने बनावटी उपाय किये जाते हैं; न जाने कितनी झूठी उत्तेजनायें दिलाई जाती हैं, न जाने कितने अनुचित दण्ड, न जाने कितने गढ़कर तैयार किये हुए विद्वेष, न जाने कितनी कूट युक्तियाँ और न जाने कितने धर्मके ढोंग रचे जाते हैं । इन सब स्वभावभ्रष्ट बातोंके धुआँधारमें मनुष्य को मार्ग नहीं सूझता-वह सरल और उदार, प्रशान्त और सुन्दर
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