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इस समय यूरोपके साहित्यमें और समाजमें एक विलक्षण प्रकारकी व्याधिने दर्शन दिये हैं। उस देशवाले इस व्याधिको World weariness कहते हैं । इसकी कृपासे स्नायु विकल हो गये हैं और जीवनका स्वाद चला गया है । पर स्वाद तो होना ही चाहिए, इस. से लोग नई नई उत्तेजनाओंकी रचना करके आपको भुलाने या फुसलानेकी चेष्टामें लग रहे हैं । कुछ समझमें ही नहीं आता कि यह असुख और विकलता क्यों है--इसका कारण क्या है ? स्त्री और पुरुष दोनोंहीको तो इस अवसाद या थकावटने घरे लिया है। __ स्वभावसे क्रमशः बहुत दूर चला जाना-अतिशय अस्वाभाविक या अप्राकृतिक प्रवृत्ति करने लगना ही इसका कारण है । कृत्रिम साधन या सुभीते इस तरह बढ़ाये जा रहे हैं-उनका जोर इतना बढ़ गया है कि उन्होंने जगतके जीवको मानो जगतके बाहरका जीव बना दिया है। इन जगज्जीवों या मनुष्योंका मन तो पुस्तकोसे ढंक गया है और शरीर कपड़े लत्तों तथा और और चीज़ोंके भीतर छुप गया है । इस तरह जीवात्माके सारे दर्वाजे और खिड़कियाँ बन्द कर दी गई हैंस्वच्छ वायु और स्वाधीन प्रकाशको आनेके लिए उसमें कोई मार्ग ही नहीं है। जो सहज हैं, नित्य हैं और मूल्यहीन होनेके कारण ही सबसे अधिक मूल्यवान् हैं, उन प्रकृत वस्तुओंके साथ न तो मिलना जुलना रहा और न प्रत्यक्ष परिचय रहा, इससे उनके ग्रहण करनेकी शक्ति ही नष्ट हो गई है। उनके स्थानमें जो चीजें उत्तेजनाकी नई नई ताडनाओंसे उत्पन्न होकर कुछ दिन फेशनकी भँवरमें पड़कर गँदली हो जाती हैं और इसके बाद ही अनादर और घृणाके किनारे एकत्रित होकर समाज--वायुको दूषित करती हैं, वे फिर फिर कर लाख लाखगुणी मेहनत कराती हैं और उसमें सारे समाजको जोतकर उसे को
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