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________________ ४३२ विषय आदि सभी बातों का ज्ञान हो जाता है । आलोचना पढ़ने से मालूम होता है कि वह दीर्घकालव्यापी अध्ययन मनन और अन्वेपणका फल है । इस ग्रन्थसे हिन्दी साहित्य में एक बहुमूल्य रत्नकी वृद्धि हुई है। इसका सम्पादन बडे ही परिश्रम से किया गया है । इसके धार्मिक विचारोंसे भले ही कोई सहमत न हो, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इसके स्वाध्याय से हर कोई लाभ उठा सकता है और एक राष्ट्रनिर्माता कविकी प्रतिभासे परिचित हो सकता है । छपाई, सफाई, कागज, जिल्द आदि सभी बातें अच्छी हैं । इतने पर भी मूल्य बहुत कम रक्खा गया है १९ विदूषक -- प्रकाशक, अध्यक्ष एंग्लो ओरियण्टल प्रेस लखनौ । पृष्ठ संख्या १३२ । मूल्य छह आने । लखनौके नागरी प्रचारक में समय समय पर विदूषककी सहीसे विनोदपूर्ण लेख या चुटकिलं छपा करते थे। उनमें से चुने चुने लेखोंका संग्रह इस पुस्तकमें कर दिया गय है। सब मिलाकर २१ लेख हैं । सबही लेखों में विनोद और मनोरंजन के साथ कुछ न कुछ शिक्षा है। किसी किसी लेखमें तो बहुत ही विचार योग्य बातें कही गई हैं। सब ही लेख मौलिक हैं- नकल या अनुवाद नहीं है । इस दृष्टि से हम इस पुस्तकको विशेष आदरणीय समझते हैं । २० भारतगीताञ्जलि -- लेखक, पं० मात्र शुक्ल । प्रकाशक, पं० रामचन्द्र शुक्ल वैद्य, कूचा श्यामदास, प्रयाग । मूल्य चार आने । देशभक्तिपूर्ण कविताओंके लिखने में शुक्लजी बडे सिद्धहस्त हैं। इस विषय में आपने बड़ी प्रशंसा प्राप्त की है। हिन्दी के अनेक पत्रों में आपकी कवितायें प्रकाशित हुआ करती हैं। इस पुस्तक में आपकी चुनी हुई ७५ रचनाओं का संग्रह है । कोई कोई रचना तो प्रतिदिन पाठ करने याग्य है। हम चाहते हैं कि इन गीतोंकी पवित्र ध्वनिसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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