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पूर्ण ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान पाया जाता है। मुक्तजीव एक ही समयमें समस्त संसारकी भूत, भविष्यत्, वर्तमान समस्त वस्तुओंको जानता है। मुक्त जीव सर्वज्ञ है; परन्तु संसारी जीव सर्वज्ञ नहीं है । वह इंद्रियोंद्वारा पदार्थको जानता और देखता है। उसका ज्ञान परिमित है | मुक्त जीवका ज्ञान अनन्त, अपरिमित है । समस्त ब्रह्माण्डकी वस्तुओं में फैला हुआ है । संसारी जीवको केवल उतना ही ज्ञान है जितना इन्द्रियोंद्वारा उसको गम्य है । उसकी आँखों से बचाकर यदि कोई पदार्थ रक्खा जाय, तो वह यह नहीं बतला सकता कि वह क्या पदार्थ है । वास्तवमें प्रत्येक जीव में सर्वज्ञ होनेकी शक्ति है । निज स्वभावकी अपेक्षा जीव मात्र सर्वज्ञ है । मुक्त जीवमें यह स्वभाव व्यक्तरूप है । संसारी जीवमें केवल शक्तिरूप है; व्यक्तरूप नहीं । अर्थात् छिपा हुआ है । अब देखना यह है कि संसारी जीवकी यह दशा क्यों हो रही है और जिस कारण से उसकी यह दशा हो रही है, वह किसी उपायसे दूर भी हो सकता है । इससे पूर्व कि इस विषयपर विशद रूपसे विवेचन किया जाय यह आवश्यक है कि अजीव द्रव्यके गुण स्वभावका ज्ञान हो जाय । जैसा ऊपर कह आये हैं, अजीव द्रव्यके पाँच भेद हैं - अर्थात् पुद्गल, काल, आकाश, धर्म, अधर्म ।
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पुद्गल ।
पुद्गल वह द्रव्य है कि जिसमें ज्ञान नहीं है। चेतनाशक्ति से रहित है, मूर्तीक है और मिलने बिछुड़ने की योग्यता रखता है । अर्थात् कभी तो पुद्गलसे पुद्गल मिलकर कोई एक पदार्थ बन जाता है और कभी पुद्गलसे पुद्गल पृथक होकर उस पदार्थके खंड खंड हो जाते हैं । पुद्गल द्रव्य भी अपने द्रव्यत्वकी अपेक्षा अविनाशी है । उसके
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