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________________ ३५९ है। संसारी जीवके भी उसकी अवस्थापेक्षया बहिरात्मा और अन्त. रात्मा ये दो भेद हैं। जो जीव राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मान, मायामें अधिक फँसा है, जिससे बुरे विचार, बुरे शब्द और बुरे कार्य अधिक होते हैं, वह बहिरात्मा है । इससे विपरीत जो स्व और परके भेदको जानता है, जिसकी इच्छायें व कषायें मन्द हैं, शुभ विचारों और शुभ कार्योंमें जिसका मन लगा रहता है वह अन्तरात्मा है । मुक्त जीव या परमात्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुखका धारक है, अमूर्तीक है, अव्याबाध है । अगुरलघु है, अर्थात् हल्का भारी नहीं है । अतएव उसको किसी टेविल व कुर्सीकी जरूरत नहीं है और अवगाहन शक्तिका धारक है अर्थात् किसी वस्तुसे वह रुक नहीं सकता और कोई वस्तु उसको काट नहीं सकती। वह वीतराग, सर्वज्ञ और परमानन्द है। ___ संसारी जीव उपयोगमयी, अमूर्तीक, कर्ता, देहपरिमाण अर्थात् शरीरके बराबर रहनेवाला, भोक्ता अर्थात् कर्मफलका भोगनेवाला और जन्ममरण करनेवाला है। __ जीवका स्वभाव ज्ञान है । स्वभाव वस्तुके उस गुणको कहते हैं कि जिससे वस्तुका अस्तित्व है, जो वस्तुसे कभी पृथक् नहीं होता और जो कभी और वस्तुमें नहीं पाया जाता। अतएव ज्ञान जीवका ऐसा गुण है जो जीवके अस्तित्वको प्रगट करता है, जो जीवसे कभी पृथक् नहीं होता और जो और किसी वस्तुमें भी नहीं पाया जाता । ज्ञानके कारणहीसे जीव अन्य द्रव्योंसे पृथक् पहचाना जाता है । ज्ञान प्रत्येक जीवमें-चाहे वह संसारी हो चाहे मुक्त-पाया जाता है। अन्तर केवल इतना है कि मुक्त जीवमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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