SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७७ स्तुति की गई है । परन्तु उसमें यह नहीं लिखा है कि बलाकपिच्छके शिष्य समन्तभद्र थे । अर्थात् समन्तभद्रादि उनकी वंशपरम्परामें तो थे, पर उनके बाद ही नहीं हुए हैं। इसी प्रकारसे ४० ३ शिलालेखमें भी बलाकपिच्छका वर्णन करके समन्तभद्र और पूज्यपाद आदिका स्तवन किया है और स्पष्ट शब्दोंमें यह लिख दिया है कि ये बलाकपिच्छकी आचार्य परम्परामें हुए हैं। . पट्टावलीकी परम्परा इन लेखोंसे बिलकुल नहीं मिलती। उसके अनुसार कुन्दकुन्दके बादकी परम्परा इस प्रकार है-उमास्वाति, लोहाचार्य, यशःकीर्ति, यशोनन्दि, देवनन्दी (पूज्यपाद ) और गुणनन्दि इत्यादि । आश्चर्य नहीं कि पट्ट या गद्दीके भेदसे यह अन्तर पड़ गया हो । अथवा पट्टावलीके कर्त्ताने अनुमानसे ही यह क्रम लिख दिया हो। . स्थान । श्रुतावतारके लेखानुसार कुन्दकुन्दाचार्य कुण्डकुन्दपुरके रहनेवाले थे और यह स्थान संभवतः कर्णाटक प्रान्तमें है । भद्रबाहुके समयमें जो द्वादशवर्षव्यापी बड़ा भारी अकाल पड़ा था, उसमें भद्रबाहु स्वामी के साथ मुनियोंका बड़ा भारी संघ कर्णाटक देशमें चला गया था और उसके बाद ही दिगम्बर और श्वेताम्बर दो जुदा जुदा भेद हो गये थे । ऐसा मालूम होता है कि उक्त भेद हो जानेके बाद दिगम्बराचाोंने दक्षिण कर्णाटकको और श्वेताम्बराचार्योंने गुजरात तथा उत्तर भारतको अपना केन्द्रस्थल बना लिया था। इस फूटफाटके कुछ ही समय पछि कुन्दकुन्दाचार्य हुए हैं । इससे उनका निवास कर्णाटक प्रान्तमें ही संभवित जान पड़ता है । उनकी शिष्यपरंपराके आचार्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy