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________________ ३७६ बनाये हुए अनेक ग्रन्थ प्रचलित हैं; परन्तु उनमें मंगलचरणादिमें अपने गुरुका उल्लेख उन्होंने कहीं भी नहीं किया है । शिष्यपरम्परा । . आचार्य कुन्दकुन्द नन्दिसंघ या नन्दिगणके प्रथम अचार्य थे। श्रवणबेलगुलमें ४७ नं० का एक विशाल शिलालेख है। वह ई०, स० १११५ के लगभगका लिखा हुआ है इसमें उनकी शिष्यपरम्पराका विस्तृत उल्लेख है । स्थानाभावसे र द्धृत न कर उसके प्रारंभके अंशका सार दे दिया जाता है - "श्रीपमनन्दिका दूसरा नाम कुन्दकुन्दाचार्य था । उच्च चारित्रके प्रभावसे उन्हें चारण ऋद्धि प्राप्त हो गई थी । उनके शिष्य उमास्वाति थे, जिनका दूसरा नाम गृध्रपिच्छाचार्य था। उनकी ( पद्मनंदिकी ) अन्वयमें उमास्वातिके समान दूसरा विद्वान् न था । गृध्रपिच्छके शिष्य बलाकपिच्छ हुए । बड़े बड़े राजा उन्हें नमस्कार करते थे। उनके शिष्य गुणनन्दि पण्डित यति हुए, जो तर्क, व्याकरण, साहित्य आदिके धुरन्धर विद्वान् थे। उनके ३०० शिष्य थे जिनमें ७२ प्रधान थे। उनमें भी देवेन्द्र मुनि सर्वश्रेष्ठ हुए । वे बड़े भारी व्याख्याता, नय प्रमाणके ज्ञाता और सैद्धान्तिक थे। उनके शिष्य कलधौतनन्दि (कनकनन्दि ? ) सिद्धान्तचक्रवर्ती और वाक्कामिनीवल्लभ हुए । उनके पुत्र मदनशंकर या महेन्द्रकीर्ति हुए। उनके शिष्य वीरनन्दि हुए। वे बड़े भारी कवि, गमक, महावादी और वाग्मी थे । इत्यादि ।" - यही परम्परा ४२ वें लेखमें तथा और भी कई लेखोंमें मिलती ... मंगराज (तृतीय)कृत शिलालेखमें पद्मनन्दि, उमास्वाति, और बलाकपिच्छके वर्णनके बाद समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, आदिकी Jain Education International : For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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