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________________ ३८५ "मार्गमें मुनिमहाराजकी मयूरपिच्छि गिर गई और तलाश करने पर भी न मिली । लाचार उससमय एक गृध्रपिच्छिसे काम चलाना पड़ा ! इसी घटनाके कारण पीछे गृध्रपिच्छाचार्यके नामसे उनकी ख्याति ___ “विदेह क्षेत्रके मनुष्योंका शरीर ५०० धनुष्यका था और कुन्दकुन्दाचार्य ३|| हाथके थे ! इसलिए वहाँकी समवसरण सभामें इन्हें लोग बड़े कुतूहलकी दृष्टिसे देखने लगे । भगवानके कहने पर लोगोंको मालूम हुआ कि ये भरतक्षेत्रके एक मुख्य आचार्य हैं । ___ " कुन्दकुन्दाचार्य वहाँ आठ दिन तक रहे । इस बीचमें उन्होंने अपनी शंकाओंका समाधान कर लिया और बहुतसा नवीन ज्ञान सम्पादन किया । लौट कर आते समय वे एक ग्रन्थ साथ लेते आये, जिसमें राजनीति, मंत्र आदि नाना विद्याओंका भण्डार था। परन्तु दुर्भाग्यवश वह लवणसमुद्रमें गिरकर नष्ट हो गया! वे अनेक तीथोंकी बन्दना करते हुए अपने मित्रोंकी सहायतासे जहाँके तहाँ आ पहुँचे । ___" इसके बाद वे धर्मोपदेश करते हुए धर्मका प्रसार करने लगे। लगभग ७०० पुरुषोंने और बहुतसी स्त्रियोंने उनके निकट जिनदीक्षा धारण की । कुछ समय पीछे गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बरियों और दिगम्बरियोंका विवाद हुआ। उसमें कुन्दकुन्दस्वामीने वहाँकी ब्राह्मी देवीके मुँहसे यह कहलवा दिया कि-'सत्य पंथ निरग्रंथ दिगम्बर ' और दिगम्बर मत ही प्राचीन मत है । ___“ अन्तमें उमास्वामीको अपने पद पर स्थापित करके वे तपस्या करने लगे और एक दिन ध्यानस्थ अवस्थामें ही परलोकवासी हो गये ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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