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हैं। इससे ये दोनों पद्य परस्पर असम्बद्ध मालूम होते हैं । आदिपुराणके १२ वें पर्वमें इन दोनों श्लोकोंका नम्बर क्रमशः १४७ और १५३ है । इनके मध्य में वहाँ पाँच पद्य और दिये हैं; जिनमें १६ स्वप्नोंका विवरण है । ग्रंथकर्ताने उन्हें छोड़ तो दिया, परन्तु यह नहीं समझा कि उनके छोड़नेसे ये दोनों श्लोक भी परस्पर असम्बद्ध हो गये हैं।
" महादानानि दत्तानि प्रीणितः प्रणयजिनः । निर्मापितास्ततो घंटाजिनविम्बैरलंकृताः ॥ ३३१ ॥ चर्कवर्ती तमभ्येत्य त्रिप्ररीत्य कृतः स्तुतिः महामहमहां पूजां भक्तया निर्वर्तयन्स्वयम् ॥ ३३२ ॥ चतुर्दशदिनान्येवं भगवन्तमसेवत ॥ (पूर्वार्ध) ३३३ ॥ *
इन पद्योंमेंसे पहेल पद्यका दूसरे पद्यसे कुछ सम्बंध नहीं मिलता । दूसरे पद्यमें ' चक्रवर्ती तमभ्येत्य' ऐसा पद आया है, जिसका अर्थ है ' चक्रवर्ती उसके पास जाकर' । परन्तु यहाँ इस 'उस' (तम्) शब्दसे किसका ग्रहण किया जाय ? इस सम्बन्धको बतलानेवाला कोई भी पद्य इससे पहले नहीं आया है । इसलिए यह पद्य यहाँ पर बहुत भद्दा मालूम होता है । वास्तवमें पहला पद्य आदिपुराणके ४१ वें पर्व है, जिसमें भरतचक्रवर्तीने दुःस्वप्नोंका फल सुनकर उनका शान्तिविधान किया है। दूसरा पद्य आदिपुराणके ४७ वें पर्वका है और उस वक्तसे सम्बंध रखता है, जब भरतमहाराज आदीश्वरभग
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* पद्य. नं. ३३१ आदिपुराणके ४१ वें पर्वके श्लोक नं. ८६ के उत्तरार्ध और नं. ८७ के पूर्वार्धको मिलकर बना है। श्लोक नं. ३३२ पर्व नं. ४७ के श्लोक नं. ३३७ और ३३८ के उत्तरार्ध और पूर्वाधोंको मिलानेसे बना है । और श्लोक नं. ३३३ का पूर्वार्ध उक्त ४७ वें पर्वके श्लोक नं. ३३८ का उत्तरार्ध है।
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