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३४१ उनको दूसरे हरिभद्रसूरि मानें, तो कोई गलती न होगी ! क्यों कि भारतवर्ष और तिब्बतमें धार्मिकसंबंध पाँचवीं शताब्दिकी अपेक्षा वारहवीं शताब्दिमें अधिक था।
__रत्नप्रभसूरि ( सन् ११८१ ई० ) ११३. रत्नप्रभसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध नैयायिक थे। उन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालकारकी छोटीसी टीका स्याद्वादरत्नावतारिका लिखी है।
११४. सन् ११८१ ई० में भडोंचमें अश्वबोधतीर्थ पर भद्रेश्वरसूरिके प्रसन्न करनेके लिए उपदेशमालावृत्ति नामक ग्रंथ लिखा । उसमें उन्होंने बृहद्गच्छमें अपनी धार्मिक पट्टावली इस प्रकार लिखी है:(१) मुनिचन्द्रसूरि; (२) देवसूरि; (३) भद्रेश्वरसूरि और (४) रत्नप्रभसूरि ।
मल्लिषेणमूरि ( सन् १२९२ ई०) . ११५. इनका संबंध श्वेताम्बर संप्रदायके नगेन्द्र गच्छसे था और ये हेमचंद्रकृत वीतरागस्तुतिकी टीका स्याद्वादमंजरीके कर्ता थे। इस ग्रंथमें कई दर्शनोंके खंडन भी किये गये हैं । इस ग्रंथके अंतमें मल्लिषणने अपनेको उदयप्रभसरिका शिष्य लिखा है और ग्रंथके रचनेका समय शाका १२१४ अर्थात् सन् १२९२ लिखा है।
. राजशेखर मरि ( सन् १३४८) . . ११६. राजशेखरसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदायके थे और प्रमाणनयतत्वालोकालंकारकी उपटीका रत्नावतारिका पंजिका और स्याद्वादकलिका और चर्तुविंशतिप्रबंधके कर्ता थे। वे हिन्दू दार्शनिक श्रीधरकृत न्यायकुंडलीकी एक पंजिका (टीका ) के भी कर्ता हैं।
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