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________________ ४१९ धार्मिक सहिष्णुताका यह एक बचा बचाया नमूना है। यह बतला रहा है कि पहले हम अपने जुदा जुदा धमोंको पालते हुए भी एकता, प्रीति और सहानुभूतिके साथ रहते थे-हमारा पारलौकिक धर्म हमारे ऐहिक सामाजिक कामोंमें बाधक न होता था। राष्ट्रीयताकी दृष्टि से यह सम्बन्ध बहुत ही महत्त्वका है । इसे तोडनेका विचार भी न करना चाहिए, बल्कि कहीं कहींके अग्रवालोंने जो इसे बन्द कर दिया है उनमें फिरसे जारी करा देना चाहिए। जैनधर्मको इससे कोई हानि नहीं पहुँच सकती और जैनियोंकी संख्या घटनेसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि जिस तरह इस सम्बन्धसे बहुतसे जैन कुटुम्ब वैष्णव हो जाते हैं, उसी तरह बहुतसे वैष्णव भी तो जैन हो सकते हैं । यदि जैनीकी लडकी वैष्णवके यहाँ जाकर वैष्णव बन जाती है, तो वैष्णवकी लडकी भी तो जैनीके यहाँ आकर जैनी बन जाती है-ऐसे उदाहरणोंकी भी तो कमी नहीं है । वैष्णव धर्ममें ऐसी कोई खास खबी नहीं है कि उसके संसर्गसे जैनी बलात् वैष्णव बन जाय और जैनधर्ममें ऐसी कोई कमी नहीं है कि उसके संसर्गसे कोई जैनी न बने । ऐसी भी कोई बात नहीं है कि वैष्णवोंमें धार्मिक चर्चा कुछ अधिकतासे होती हो और जैनियोंमें न होती हो और इसके कारण लोग वैष्णव बन जाते हों, पर जैन न बनते हों । और थोड़ी देरके लिए यदि यह भी मान लिया जाय कि वर्तमानमें जैनियोंसे वैष्णव बहुत बन गये हैं, तो इसके लिए और बहुतसे प्रयत्न हो सकते हैं-जातिसम्बन्ध तोडनेकी क्या ज़रूरत है ? जैनी अग्रवाल भाईयोंको चाहिए कि वे अपनी लडकियोंको जैनधर्मकी ऊँचे दर्जेकी शिक्षा दें-उनके हृदयमें श्रद्धाका चिरस्थायी बीज डाल दें और ऐसी पक्की बना दें कि वैष्णव घरमें जाकर भी मजबूत बनी रहें; बल्कि अपने अच्छे स्वभाव और अच्छे विचारोंसे उस सारे घरको ही मुग्ध करके जैन बना लें । हमारे हाथमें तो धर्मप्रचा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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