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________________ ३५७ रहता है । इसीका नाम हम संसारियोंने जन्म मरण रख छोड़ा है; परन्तु इस परिवर्तनका कारण परमात्मा नहीं है इसका कारण वस्तुस्वभाव और एक वस्तुका दूसरी वस्तु पर प्रभाव है। संसार और जो कुछ संसारमें है, सब द्रव्यका बना हुआ है। द्रव्यका स्वरूप जैनसिद्धान्तानुसार सत् है। "सद्रव्यलक्षणं" जैनधर्मका सूत्र है। सत् , उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप होता है । ये तीनों गुण द्रव्यमें पाये जाते हैं। द्रव्यकी पर्यायोंका सदैव उत्पाद व्यय होता रहता है; परन्तु द्रव्य सदा ज्योंका त्यों रहता है। इस प्रकार द्रव्यमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों गुण सदैव पाये जाते हैं। इसका उदाहरण इसप्रकार है,-स्वर्ण एक धातु है। उसके भिन्न भिन्न आभूषण बन सकते हैं। कड़े बना लिये । फिर उनको गला कर हार बना लिया। फिर हारको गलाकर कुंडल बना लिये । गरज यह कि उस सोनेकी पर्यायके परिवर्तनसे उसमें उत्पाद और व्ययका होना कह सकते हैं, परन्तु स्वर्णधातुका प्रत्येक अवस्थामें अस्तित्व है। अतएव स्वर्णकी अपेक्षा उसमें ध्रुवता है। इस प्रकार स्वर्णमें उत्पाद, व्यय ध्रौव्य तीनों गुण पाये गये । इसी तरह आत्मा द्रव्य है। यह कभी नरक पर्यायमें जाता है, कभी वनस्पतिके रूपमें उत्पन्न होता है, कभी पशुपक्षीकी योनिमें जन्म लेता है, कभी मनुष्य हो जाता है और कभी देव बनकर स्वर्गमें पहुँच जाता है। इस प्रकारसे एक पर्यायमें मरता है, दूसरी पर्यायमें जन्म लेता है; परन्तु वास्तवमें जीव सदैवसे है, न कभी मरता है और न कभी पैदा होता है, यह उत्पाद, व्यय केवल जीवकी पर्यायोंमें होता है। केवल व्यवहार रूपसे जीवका जन्म: मरण कहा जा सकता है । निश्चयसे जीव अजर, अमर, अनादि, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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