SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९४ “ ध्यानं तावदहं वदामि विदुषां ज्ञानार्णवे यन्मतम् (२-३ ज्ञानार्णव ग्रंथ, जिसमें ध्यानादिका विस्तारके साथ कथन है, श्रमि शुभचंद्राचार्यका बनाया हुआ है । शुभचंद्राचार्य विक्रमकी ११ वीर शताब्दीमें धाराधीश महाराज भोजके समयमें हुए हैं। इससे स्वयं व ग्रंथमुखसे ही प्रगट है कि यह त्रिवर्णाचार ज्ञानार्णवके पीछे बना है और इसलिए भगवजिनसेनका बनाया हुआ नहीं हो सकता। और न हरिवंशपुराणके कर्ता दूसरे जिनसेन या तीसरे जिनसेनका ही बनाया हुआ हो सकता है। क्योंकि हरिवंशपुराणके कर्ता श्रीजिसेनाचार्य भगवजिनसेनके प्रायः समकालीन ही थे। उन्होंने हरिवंशपुराणको शक संवत् ७०५ (वि० सं० ८४० ) में बनाकर समाप्त किया है। जब हरिवंशपुराणसे बहुत पीछे बननेके कारण यह ग्रंथ हरिवंशपुराणके कर्ताका बनाया हुआ नहीं हो सकता, तब यह स्वतःसिद्ध है कि हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिमें हरिवंशपुराणके कर्तासे पहले होनेवाले जिन तीसरे जिनसेनका उल्लेख है, उनका भी बनाया हुआ नहीं हो सकता। (२) ग्रन्थके चौथे पर्वमें एक पद्य इस प्रकार दिया है:__ " प्रापदैवं तव नुतिपदैर्जीवकेनोपदिष्टैः । पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम् ॥ कः संदेहो यदुपलभते वासवश्रीप्रभुत्वम् । जल्पं जाप्यमणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कारचक्रम् ॥ १२७॥" यह पद्य श्रीवादिराजसूरिरचित 'एकीभाव ' स्तोत्रका है । वहींसे उठाकर रक्खा गया है। वादिराजसूरि विक्रमकी ११ वी १ ज्ञानार्णवके प्रारंभमें जिनसेन स्वामीको नमस्कार किया गया है। -सम्पादक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522795
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy