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सब गुण और पर्यायें पुदगलकी ही हैं । शब्द भी पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है । कुछ मतावलम्बियोंने शब्दको आकाशका गुण माना है, परन्तु जैनधर्ममें इसको आकाशका गुण नहीं कहा है। क्योंकि आकाश अमूर्तीक द्रव्य है और शब्द मूर्तीक नहीं है । कारण कि शब्द भीत आदि पौद्गलिक पदार्थोंसे रुक जाता है। इस हेतुसे ऐसी वस्तु जो स्वंय मूर्तीक हो, अमूर्तीकका गुण नहीं हो सकती। जैनधर्मावलम्बी शब्दको पुद्गलकी एक पर्याय विशेष बतलाते हैं। जब एक पुद्गल स्कन्ध दूसरे पुद्गलस्कन्धसे टकराता है, तब कुछ परमाणु एक पर्यायविशेषको धारण कर लेते हैं कि जिसका नाम शब्द है।
काल। दूसरा अजीव द्रव्य काल है। काल भी अनादि और अविनाशी है । इसका स्वभाव अन्य द्रव्योंको प्रवर्तानेका है। वर्तना इसका लक्षण है । नई वस्तुको पुरानी और पुरानीको नई करना, इसका काम है । जैनधर्मके अनुसार कालके दो भेद हैं । निश्चयकाल और व्यवहार काल, परन्तु व्यवहार काल वास्तवमें कोई पृथक् द्रव्य नहीं है-निश्चयकालकी ही पर्याय है। निश्चयकाल समस्त लोकमें व्याप्त है । निश्चयकाल उन कालके अणुओंका नाम है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें भरे हुए हैं और जिनका काम पदार्थोंको बदलनेका है । आकाशके प्रत्येक प्रदेश ( आकाशका वह छोटेसे छोटा भाग जिसका फिर भाग न हो सके )पर एक कालाणु स्थित है। यह कालाणु भी अत्यंत सूक्ष्म अमूर्तीक पदार्थ है कि जिसको हम इंद्रियों द्वारा नहीं जान सकते । कालाणुके टुकड़े भी नहीं हो सकते । निश्चय काल द्रव्य यह है । इसीकी भिन्न भिन्न
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