Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 122
________________ ४४० दिये गये हैं । खबर है कि लाला ज्योतीप्रसादजीने अपना टाइटिल उक्त मुंशीजी के हाथ गाली सुनाने की एवजीमें बेच दिया है । मुबारिक हो । २ अफसोस है । जैन प्रचारक के वर्तमान सम्पादकने किसी पिछले अंक में लिखा था कि "मैं सम्पूर्ण जैन पत्रोंके बदले में अपना पत्र भेज रहा हूँ; मगर अफसोस है कि मेरे पास बदले में कोई भी पत्र नहीं आता ।" और पत्रोंके विषयमें तो बन्दा कुछ कह नहीं सकता कि वे क्यों आपसे बदला नहीं करना चाहते। हो सकता है कि आपके पत्रमें ही कोई ऐसी खूबी हो, जो उन्हें बदला न करनेके लिए लाचार करती हो । परन्तु बम्बई के जैनहितैषी, सत्यवादी और जैनमित्र के दफ्तर में यदि कोई उर्दूका पत्र भूला भटका आ पहुँचता है तो, उसका नाम ही जानने के लिए बड़ी बड़ी कोशिशें करनी पड़ती हैं - फिर भी निराश होना पड़ता है । अच्छा हो, यदि आप अपने पत्रके साथ एकाध उर्दू पढ़नेवाला भी यहाँ भेज दिया करें । ३ विलायती तीर्थंकर | पंचमकालमें तीर्थकर नहीं होंगे । इसका मतलब यह नहीं है कि तीर्थकर होंगे ही नहीं । नहीं, होंगे तो अवश्य, पर भरतखण्डमें न होंगे; विलायतों में होंगे । भरतखण्डके तीर्थकरोंके पाँच कल्याणक होते थे; परन्तु विलायतवालोंके लिए यह नियम न होगा- उनके चार, तीन, दो, एक कल्याणक भी हो सकेंगे । यहाँ पिछले तीन कल्याणकोंमें ज्ञानके साथ चारित्रका अनिवार्य नियम है, परन्तु विलायतवासी इससे भी मुक्त रहेंगे । कालदोषसे ये सब नियम लोगों को विस्मृत हो गये थे; परन्तु भारतजैनमहामण्डलने अपने दफ्तर में से इनका पुनरुद्धार कर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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