Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 120
________________ ४३८ पुस्तकें अच्छी हैं और छपाई भी सुन्दर है; परन्तु मूल्य रखनेमें आपने सबका नम्बर ले लिया है। पहली पुस्तक ३२ पेजकी (जैनहितैषीके साइज़की) और दूसरी २५ पेजकी है। इनका अधिकसे अधिक मूल्य दो आना और डेड आना होना चाहिए था; परन्तु आपने पाँच आना और चार आना रख दिया है ! तीसरी पुस्तकका भी यही हाल है। एक रुपये पर चार आना कमीशन देनेका क्या यही मतलब है कि मूल्य पहले ही कई गुना रख लिया जावे ? अच्छा है। कमीशनकी चाटवाले ग्राहक बिना इस हिकमतके दुरुस्त भी न होंगे। 'वैश्य कौमका फोट में आपने उसे हिन्दीमें क्या तर्जुमा किया है सो समझमें न आया। उर्दू लिपिसे नागरी लिपिमें छपा लेनेको ही तो आप तर्जुमा नहीं कहते ? पर लाला ज्योतीप्रसादजी ए. जे. से आपने इस तर्जुमेकी आज्ञा भी ले ली है ? समवसरणदर्पणको आपने धर्मसंग्रहश्रावकाचार परसे उद्धत कर लिया है; पर यह तो कहिए कि श्लोकोंका अर्थ आपहीने किया है, या वहींसे जैसाका तैसा उठाकर रख लिया है ? यदि उद्धृत किया था, तो पहले अर्थ लिखनेवाले महाशयके प्रति कुछ कृतज्ञता ही प्रकाश कर दी होती! २८ श्रीपालचरित्र, जम्बूस्वामीचरित्र, कुन्दकुन्दाचार्य चरित्र-ये सूरतके दिगम्बर जैनके सातवें वर्षकी चौथी, छठी और पहली भेटकी पुस्तकें हैं। पहली दो पुस्तकें हिन्दीमें हैं और उन्हें पं०दीपचन्दजी परवारने लिखा है। पुराने पद्यग्रन्थोंको गद्यमें परिवर्तन कर दिया है। अच्छा होता, यदि कुछ ढंग बदल दिया जाता और कथाभाग रोचक बनानेका भी प्रयत्न किया जाता। प्रारंभमें, अन्तमें तथा और भी कहीं कहीं जो पद्य दिये हैं, वे न दिये जाते तो अच्छा होता-उनकी रचना अच्छी नहीं । तीसरी पुस्तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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