Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 116
________________ मौलाके निकालनेका प्रारंभ किया है। हमें इसके यशोधरचरित और नागकुमारचरित ये दो काव्य समालोचनार्थ प्राप्त हुए हैं। पहला ग्रन्थ श्रीवादिराजसूरिके यशोधर काव्यका और दूसरा मल्लिषेणसूरिके नागकुमार काव्यका भाषानुवाद है । साथमें मूल ग्रन्थ नहीं है। अनुवाद सरल और मनोरंजक करनेकी कोशिश की गई है। प्रयत्न अच्छा है। हमें आशा है कि जैनसमाज इस सीरीजको अवश्य आश्रय देगा। मूल्य क्रमसे चार और छह आना है । छपाई अच्छी है। २४ रूपिणी-लेखक व प्रकाशक, श्रीयुक्त दत्तात्रय भीमाजी रणदिवे, वर्धा। श्रेणिकचरितकी एक छोटीसी आनुषंगिक कथाके आधारसे इस छोटेसे उपन्यासकी रचना हुई है। " किसी किसानकी एक रूपिणी नामकी स्त्री थी। वह बहुत ही चंचल और चरित्रहीन थी। उसे अपना पति पसन्द न था । बस्तीके एक बदमाशने उसको अपने हाथमें कर लिया और उसके साथ देशान्तरमें भाग जाना चाहा। निश्चय हो गया कि अमुक समय अमुक स्थान पर दोनों मिलें और परदेशको चल दें। रूपिणीको संकेत स्थलकी ओर जाते समय एक युवा मुनिके दर्शन हुए। वह उन पर मोहित हो गई और प्रेमभिक्षा माँगने लगी। मुनिने उसे प्रभावशाली उपदेश दिया। वह उसके मर्म मर्ममें भिद गया। उसने दृढ पातिव्रत ग्रहण कर लिया और अपने घर लौट गई। पीछे बदमाशने उसकी प्राप्तिके लिए अनेक उपाय किये, पर सफलता न हुई। अन्तमें एक महात्माके पाससे एक गुटिका प्राप्त करके उसने अपना रूप बदल लिया और वह रूपिणीका पति बनकर उसके पास गया। परन्तु उसके हाव भावादि देखकर रूपणीको सन्देह हो गया। इतनेमें पति भी आगया। झगड़ा होने लगा। मामला श्रेणिकके दरबारमें पहुँचा और बुद्धिमान् अभयकुमारने अपनी विल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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