________________
अनंत है; परन्तु चूँकि पर्याय जीवसे पृथक् नहीं है इस कारण जब उत्पाद व्यय पर्यायसे होता है तब उसके कारण उत्पाद व्ययका जीवमें कहना भी अनुचित नहीं है। भावार्थ-निश्चय, व्यवहार नयकी अपेक्षासे जीवद्रव्यमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तीनों गुण पाये जाते हैं और द्रव्य पर्याय गुणको लिये होता है । जैसे पीतवर्ण स्वर्णका गुण है और कड़े व हार इत्यादि उसकी पर्यायें हैं । इसी प्रकार ज्ञान जीवका गुण है और पशुपक्षी मनुष्य, देवादि जीवनी, पर्यायें हैं। सारांश यह है कि जैनधर्मानुसार समस्त संसार द्रव्यसे बना हुआ है और द्रव्य सत् रूप होता है और गुण व पर्यायको लिये होता है और उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य उसमें पाये
जाते हैं।
___ अब प्रश्न यह होता है कि द्रव्य.एक है या अनेक हैं। इसका उत्तर जैनधर्म यह देता है कि द्रव्य एक भी है और अनेक भी हैं। द्रव्य होनेकी अपेक्षासे द्रव्य एक है। द्रव्य जहाँ तक उसके सद्धर्मका सम्बन्ध है एक है । अगर द्रव्यको उसके द्रव्यत्वकी अपेक्षासे देखा जाय तो एक है, परन्तु जब अन्य गुणोंकी अपेक्षासे देखा जाता है, तो उसके अन्य भेद हो जाते हैं। जैसे जब ज्ञान व चेतनाशक्तिका अपेक्षा विचार करते हैं, तब द्रव्यके जीव व अजीव ये दो भेद हो जाते हैं। जिस द्रव्यमें ज्ञान व चेतना पाई जाती है, वह जीव है और जिसमें ये गुण नहीं पाये जाते, वह अजीव है। अजीवके अन्य गुणोंकी अपेक्षा पाँच भेद हैं:-पुद्गल, काल, आकाश, धर्म और अधर्म।।
जीव या आत्मा। . . जीव या आत्मद्रव्य अकृत्रिम, अविनाशी, अनादिनिधन, अखंड है। यह संसारी और मुक्त दो अवस्थाओंमें पाया जाता
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org