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से भी पचासों श्लोक उठाकर रक्खे गये हैं। उनमेंसे दो श्लोक नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं:__“नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः।
पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः ॥ १४-९॥ कुधर्मस्थोऽपि सदूधर्म लघुकर्मतयाऽद्विषन्। 'भद्रः स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्तद्विपर्ययात् ॥ १४-११ ॥ ये दोनों श्लोक सागारधर्मामृतके पहले अध्यायमें क्रमशः नम्बर ४ और ५ पर दर्ज हैं। आशाधर विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमें हुए हैं। उन्होंने अनगारधर्मामृतकी टीका वि० सं० १३०० के कार्तिक मासमें बनाकर पूर्ण की है । ऐसा उक्त टीकाके अन्तमें उन्हींके वचनोंसे प्रकट है। पंडित आशाधरजीके वचनोंका इस ग्रंथमें संग्रह होनेसे साफ जाहिर है कि यह त्रिवर्णाचार १३ वीं शताब्दीके पीछे बना है। और इस लिए शताब्दियों पहले होनेवाले भगवजिनसेनादिका बनाया हुआ नहीं हो सकता।।
(८) अन्यमतके ज्योतिष ग्रंथोंमें 'मुहूर्तचिन्तामणि' नामका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है । यह ग्रंथ नीलकंठके अनुज रामदैवज्ञने शक संवत् १५२२ (विक्रम सं० १६५७) में निर्माण किया है ।* इस ग्रंथ पर संस्कृतकी दो टीकायें हैं। पहली टीकाका नाम 'प्रमिताक्षरा' है, जिसको स्वयं ग्रंथकर्ताने बनाया है और दूसरी टीका 'पीयूषधारा' नामकी है, जिसको नीलकंठके पुत्र गोविन्द दैवज्ञने शक संवत् १५२५ (वि. सं.
* यथाः- “तदात्मज उदारधार्विबुधनीलकंठानुजो।
गणेशपदपंकजं हृदि निधाय रामाभिधः ॥
गिरीशनगरे वरे भुजभुजेषु चंद्रमिते (१५२५)। ... शके विनिरमादिमं खलु मुहूर्तचिन्तामणिम् ॥ १४-३॥"
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