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वान्की स्थितिका और उनकी ध्वनिके बन्द होने आदिका हाल सुनकर उनके पास गये थे और वहाँ उन्होंने १४ दिन तक भगवान्की सेवा की थी। ग्रंथकर्ताने आदीश्वरभगवान् और भरतचक्रवर्तीका इस अवसरसम्बन्धी हाल कुछ भी न रखकर एकदम जो ४१ वें पर्वसे ४७ वें पर्वमें छलाँग मारी है और एक ऐसा पद्य उठाकर रक्खा है जिसका पूर्व पद्योंसे कुछ भी सम्बंध नहीं मिलता, उससे साफ जाहिर है कि ग्रंथकर्ताको आदिपुराणके इन श्लोकोंको ठीक ठीक समझनेकी बुद्धि न थी। (ख) इस त्रिवर्णाचारका दूसरा पर्व प्रारंभ करते हुए लिखा है कि
"प्रणम्याथ महावीरं गौतमं गणनायकम् । प्रोवाच श्रेणिको राजा श्रुत्वा पूर्वकथानकम् ॥१॥ त्वत्प्रसादाच्छ्रतं देव त्रिवर्णानां समुद्भवम् । अथेदानी च वक्तव्यमाह्निकं कर्मप्रस्फुटम् ॥२॥" अर्थात् राजा श्रेणिकने पूर्वकथानकको सुनकर और महावीरस्वामी तथा गौतम गणधरको नमस्कार करके कहा कि, हे देव ! आपके प्रसादसे मैंने त्रिवर्णों की उत्पत्तिका हाल तो सुना; अब स्पष्ट रूपसे आह्निक कर्म (दिनचर्या) कंथन करने योग्य है । राजा श्रेणिकके इस निवेदनका गौतम स्वामीने क्या उत्तर दिया, यह कुछ भी न बतलाकर, ग्रंथकर्ताने इन दोनों श्लोकोंके अनन्तर ही, 'अथ क्रमेण सामायिकादिकथनम्, ' यह एक वाक्य दिया है और इस वाक्यके आगे यह पद्य लिखा है:." ध्यानं तावदहं वदामि विदुषां ज्ञानार्णवे यन्मतमात रौद्रसधय॑शुक्लचरमं दुःखादिसौख्यप्रदम् ॥ पिंडस्थं च पदस्थरूपरहितं रूपस्थनामापरम् । तेषां भिन्नचतुश्चतुर्विषयजा भेदाः परे सन्ति वै॥३॥"
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