Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 103
________________ ४२१ ब्रह्मचारीजीने एक जगह लिखा है कि-"पहले भी ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं जिनमें धर्मका खयाल बहुधा रहा करता था और प्रायः मिथ्यातीसे सम्बन्ध न किया जाता था ।" इसके विरुद्ध सैकड़ों ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं, जिनमें जैनियोंने अजैनोंको अपनी लडकियाँ दी हैं और अजैनोंसे ली हैं । हमारे कई कथाग्रन्थोंमें ही ऐसी कई घटना ओंका उल्लेख है । दक्षिण और कर्णाटकके पिछले राजाओंके इतिहासमें ऐसे बीसों उदाहरण हैं, जो आवश्यकता होने पर प्रकट किये जा सकते हैं । वास्तवमें समान वर्णकी जातियोंमें पारस्परिक सम्बन्धके समय धर्मकी ओर क्वचित् ही लक्ष्य दिया जाता था। अन्तमें हम अग्रवाल भाईयोंको आधुनिक समयके इस नियमका स्मरण कराके इस लेखको समाप्त करते हैं कि 'संसारमें निर्बलोंको जीनेका कोई आधिकार नहीं है।' यदि तुम बलवान् बन सको-अपनी दुर्बलताके कारणोंको दूर कर सको, तो इस प्राचीन सम्बन्धसे डरनेकी कोई आवश्यकता नहीं हैं और यदि निर्बल बने रहना है, तो सम्बन्ध तोड़ देनेसे भी कुछ न होगा-वैष्णवोंसे बचोगे, तो और कोई तीसरा ही आकर तुम्हें हज़म करनेका यत्न करेगा। २ जैन लाजिककी समाप्ति । . इस लेखका प्रारम्भ २४३८ के ज्येष्ठमें किया गया था और इस अंकमें यह पूरा होता है । अर्थात् लगभग दो वर्षमें इसकी समाप्ति हुई। यह डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण एम. ए, पी. एच. डी. के 'हिस्ट्री आफ दि मिडिवल स्कूल ऑफ इंडियन लाजिक,' नामक ग्रन्थके एक भाग ( जैन भाग ) का अनुवाद है । मित्रवर बाबू दयाचन्द्रजी गोयलीयने जैनहितैषी पर अनुग्रह करके बड़े परिश्रमसे इस कठिन कार्यको समाप्त किया है, इसलिए हम आपका हृदयसे आभार मानते हैं। यदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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