Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 111
________________ ४२९ सिद्धान्तपाठशाला मोरेना, सत्तर्कसुधातरंगिणी पाठशाला सागर, जैन पाठशाला और बोर्डिंग शोलापुर, आदि कई संस्थायें ऐसी हैं जहाँ के पठ-नक्रममें संस्कृत ग्रन्थ ज़ारी हैं और जिनमें तीन हजार से लेकर आठ हज़ार रुपया तकका वार्षिक ख़र्च होता है । क्या इन संस्थाओं का यह कर्तव्य नहीं है कि संस्कृत ग्रन्थोंके प्रकाशकार्य में कुछ सहायता दें ? यदि इनके संचालक चाहें, तो उनके लिए अपनी संस्थाकी ओर से वर्ष भर में दो सौ चार सौ रुपये लगाकर एक ग्रन्थ प्रकाशित करा देना- कोई बड़ी बात नहीं है । जहाँ लोगों से कई हज़ार रुपया माँगते हैं, वहाँ दो सौ चार सौ रुपया और भी माँग लेंगे। इसके सिवाय इस कार्य में घाटा भी नहीं है । आज नहीं, तो पाँच वर्षमें लागत के दाम ज़रूर उठ आवेंगे । यदि ये सब संस्थायें इस कार्यको आवश्यक समझ लें, तो सनातन ग्रन्थमाला के तमाम ग्रन्थ केवल इन्हींकी सहायतासे प्रकाशित हो सकते हैं और लोगोंसे सहायता लेने की या ग्राहक बढ़ानेका जुदा प्रयत्न करनेकी ज़रूरत ही नहीं रहती है। हम समझते हैं, इन संस्थाओं में जो लोग धनकी सहायता देते हैं, वे भी इस कार्यको बुरा न समझेंगे । २. जो धनी और समर्थ लोग हर्ष शोकके अवसरों पर सैकड़ों हजारों रुपया नामवरीके लिए खर्च करते हैं, उन्हें इस ओर ध्यान देना चाहिए । ग्रन्थमालाके एक ग्रन्थ, एक अंक, अथवा एक ग्रन्थकी दो सौ चार सौ प्रतियोंकी छपाईका खर्च दे देना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है । जितनी प्रतियोंका खर्च वे देगें, उतनी प्रतियों पर उनका स्मारक पत्र छपा दिया जायगा । इससे उनका शिक्षित लोगों में नाम होगा और साथ ही उन ग्रन्थोंके वितरण करनेका पुण्य भी होगा । गुजरात प्रान्त में इस पद्धति से प्रतिवर्ष सैकड़ों ग्रन्थ प्रकाशित होते हैं । ३. ग्रन्थमालाके लगभग १०० ग्राहक हो चुके हैं । ढाई सौ सौ ग्राहक और हो जावें, तो इसका काम मज़ेमें चल सकता है । यदि दश www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only

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