________________
४११
नहीं हैं । यदि आदि के कुछ श्लोकोंको जातिप्रकरणसम्बंधी मान भी लिया जाय, तो भी शेष श्लोकोंका तो जातिप्रकरणके साथ कुछ भी सम्बंध मालूम नहीं होता; जैसा कि अन्तके दोनों लोकों से प्रगट है कि एक 'प्रतिमा' शब्दके नाम ( पर्यायशब्द ) दिये हैं और दूसरे में ' समान' शब्दके । वास्तवमें ये कुल श्लोक अमरकोश द्वितीय कांडके 'शूद्र' ' वर्गसे उठाकर यहाँ रक्खे गये हैं । इनका विषय शब्दोंका अर्थ है, न कि किसी खास प्रकरणका वर्णन करना | मालूम नहीं, ग्रंथकर्तीने इन अप्रासंगिक श्लोकोंको नकल करने का कष्ट क्यों
उठाया ।
(घ) इस त्रिवर्णाचार के १२ वें पर्वमें एक स्थान पर, ' अथ प्रसूतिस्नानं ' ऐसा लिखकर नीचे लिखे दो लोक दिये हैं:" लोकनाथेन संपूज्यं जिनेद्रपदपंकजम्।
वक्ष्ये कृतोऽयं सूत्रेषु ग्रंथं स्वर्मुक्तिदायकम् ॥ १ ॥ प्रसूतिस्नानं यत्कर्म कथितं यज्जिनागमे । प्रोच्यते जिनसेनोऽहं शृणु त्वं मगधेश्वर ॥२॥ ये दोनों श्लोक बड़े ही विचित्र मालूम होते हैं । ग्रंथकर्ताने इधर उधर से कुछ पदोंको जोड़कर एक बड़ा ही असमंजस दृश्य उपस्थित कर दिया है। पहले श्लोकका तो कुछ अर्थ ही ठीक नहीं बैठता, - उसके पूर्वार्धका उत्तरार्धसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं मिलता रहा दूसरा श्लोक उसका अर्थ यह होता है कि, 'प्रसूतिस्नान नामका जो कर्म जिनागममें कहा गया हैं, मैं जिनसेन कहा जाता है, है श्रेणिक राजा तू सुन ।' इस श्लोक में 'प्रोच्यते जिनसेनोऽहं ' यह पद बड़ा विलक्षण है | व्याकरण शास्त्र के अनुसार ' प्रोच्यते' क्रियाके साथ. ' जिनसेनोऽहं' यह प्रथमा विभक्तिका रूप नहीं आसकता और ' जिनसेनोऽह' के साथ 'प्रोच्यते' ऐसी क्रिया नहीं बन सकती । इसके
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org