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ऊपरके दोनों श्लोकोंके सम्बंधसे ऐसा मालूम होता कि गौतम स्वामीने इस पद्यसे आह्निक कर्मका कथन करना प्रारंभ किया है
और इस पद्यमें आया हुआ ' अहं' (मैं) शब्द उन्हींका वाचक है। परन्तु इस पद्यमें ऐसी प्रतिज्ञा पाई जाती है कि मैं ज्ञानार्णव ग्रंथके अनुसार ध्यानका कथन करता हूँ। क्या गौतम स्वामिके समयमें भी ज्ञानार्णव ग्रंथ मौजूद था और आह्निक कर्मके पूछने पर गौतमस्वामीका ऐसा ही प्रतिज्ञावाक्य हो सकता है ? कदापि नहीं । इस लिए आदिके दोनों श्लोकोंका इस तीसरे पद्यसे कुछ भी सम्बंध नहीं मिलता-उपर्युक्त दोनों श्लोक बिलकुल व्यर्थ मालूम होते हैं और इन श्लोकोंके रखनेसे ग्रंथकर्ताकी योग्यतामें वट्टा लगता है। यह तीसरा पद्य और इससे आगेके बहुतसे पद्य, वास्तवमें, सोमसेनत्रिवर्णाचारके पहले अध्यायसे उठाकर यहाँ रक्खे गये हैं।
(ग) इस त्रिवर्णाचारके १३ वें पर्वमें संस्कारोंका वर्णन करते हुए एक स्थानपर ' अथ जातिवर्णनमाह .' ऐसा लिखकर नम्बर २३ से ५९ तक ३७ श्लोक दिये हैं। इन श्लोकोंमेंसे पहला और अन्तके दो श्लोक इस प्रकार हैं:-- .
"शूद्राश्चावरवर्णाश्च वृषलाश्च जघन्यजाःआचंडालात्तु संकीर्णा अम्बष्ठकरणादयः ॥ २३ ॥ प्रतिमानं प्रतिबिम्बं प्रतिमा प्रतियातना प्रतिच्छाया। प्रतिकृतिरर्चा पुंसि प्रतिनिधिरूपमोपमानं स्यात् ॥ ५८॥ वाच्यलिंगाः समस्तुल्यः सदृक्षः सदृशः सदृक् । साधारणः समानश्च स्युरुत्तरपदे त्वमी ॥ ५९॥" इस सब श्लोकोंको देकर अन्तमें लिखा है कि, ' इति जातिकथनम्' इससे विदित होता है कि ये सब ३७ श्लोक ग्रंथकाने जातिप्रकरणके समझ कर ही लिखे हैं। परन्तु वस्तुतः ये श्लोक ऐसे
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