Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 98
________________ 44 ४१६ अथाशाधरः स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने । स श्रावकगृहं गत्वा पात्रपाणिस्तदङ्गणे ॥ १४६ ॥ स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभं भणित्वा प्रार्थयेत वा । मौनेन दर्शयित्वांगं लाभालाभे समोऽचिरात् ॥ १४७ ॥ निर्गत्यान्यद् गृहं गच्छेद्भिक्षोद्युक्तश्च केनचित् । भोजनायार्थितोऽद्यात्तद्भुक्त्वा यद्भिक्षितं मनाक् ॥ १४८ प्रार्थयेतान्यथा भिक्षां यावत्स्वोदरपूरणीम् ॥ लभेत प्रासुपात्रान्तस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ॥ १४२ ॥ जिनसेनत्रिवर्णाचारके १४ वें पर्व में सोमसेनत्रिवर्णाचारके दसवें अध्यायकी मंगलाचरणसहित नकल होनेसे ये चारों पद्य भी उसमें इसी क्रमसे दर्ज हैं । परन्तु इनके आरंभ में ' अथाशाधरः ' के स्थान में ' अथ समंतभद्र: ' लिखा हुआ है । वास्तवमें ये चारों प पं० आशाधरविरचित 'सागारधर्मामृत के ७ वें अध्यायके हैं; जिसमें इनका नम्बर क्रमशः ४०, ४१, ४२, ४३ है । श्रीसमंतभद्रस्वामी के ये वचन नहीं हैं । स्वामी समंतभद्रका अस्तित्व विक्रमकी दूसरी शताब्दी के लगभग माना जाता है । और पं. आशाधरजी विक्रमकी १३ वीं शताब्दी में हुए हैं। मालूम होता है कि जिनसेन त्रिवर्णाचारके बनानवालेने इसी भयसे ' आशाघर' की जगह समंतभद्र का नाम बदला है कि, कहीं आशाधरका नाम आजाने से उसका यह ग्रंथ आशाधरसे पीछेका बना हुआ अर्वाचीन और आधुनिक सिद्ध न हो जाय । यहाँ पर पाठकों के हृदय में स्वभावतः यह सवाल उत्पन्न हो सकता है कि ग्रंथकर्ताको समंतभद्रस्वामीका झूठा नाम लिखनेकी क्या जरूरत थी, वह वैसे ही आशाधरका नाम छोड़ सकता था । परन्तु ऐसा सवाल करने की जरूरत नहीं है। वास्तव में ग्रंथकर्ताको अपने घरकी इतनी अकल ही नहीं थी। उसने जहाँसे जो वाक्य 6 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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