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सिवाय जिनसेनका राजा श्रेणिकको सम्बोधन करके कुछ कहना भी नितान्त असंगत है। राजा श्रेणिकके समयमें जिनसेनका कोई अस्तित्व ही न था । ग्रंथकर्ताको शब्दशास्त्र और अर्थशास्त्रका कितना ज्ञान था और किस रीतिसे उन्हें शब्दोंका प्रयोग करना आता था, इसकी सारी कलई ऊपरके दोनों श्लोकोंसे खुल जाती है । इसी प्रकारके और भी बहुतसे अशुद्ध प्रयोग अनेक स्थानों पर पाये जाते हैं। चौथे पर्वमें, जहाँ नदियोंको अर्घ चढाये गये हैं वहाँ, बीसियों जगह 'नबैकोऽर्घः' 'सुवर्णकूलायकोऽर्घः' तीर्थदेवतायैकोऽर्घः, इत्यादि अशुद्ध पद दिये गये हैं; जिनसे ग्रंथकर्ताकी संस्कृत-योग्यताका परिचय मिलता है।
(ङ) इसी १२ वें पर्वमें, 'प्रसूतिस्नान' प्रकरणसे पहले मूल और अश्लेषा नक्षत्रोंकी पूजाका विधान वर्णन करते हुए इस प्रकार लिखा है:---- 'ॐठाठः स्वाहा' ए मंत्र भणी सर्षप तथा सुवर्णसूं अभिषेक कीजे । पाछै दिसि बांधि तत्र भणनं 'ऊँ नमो दिसि विदिसि आदिसो । ठऊ दिशउ भ्यः स्वाहा।' ए मंत्र त्रण बार भणीयं ताली ३ दीजइ । आषांड छाली भणीइं पहिलो कह्यो ते एवि. धि करीने माता पिता बालकनुं हाथ दिवारी सघली वस्तनई दान दीजे । पाछै अठावीस नक्षत्र अने नव ग्रहना मंत्र भणीइं माने खोलै बालक बैसारिये । पिता जिमणे हाथ वैसारीइं। पितानै माताना हाथमांहि ज्वारना दाणा देईन मंत्र भणीइं । पहिलो कह्यो ते मंत्र भणीइं । ए विधि करीने माता बालकनुं हाथ दिवारी सघली वस्तुनइ दान दीजे । पूजाना करणहारनै सर्व वस्तु दीजे । पाछै 'ॐ तदुलः'ए मंत्र भणी शांति भणीइं । पाछै जिमण देईनें वालीइ । इति मूल अश्लेषा पूजाविधि समाप्तः।"
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