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पूजासुदानतपसि स्पृहणीयचित्तः । सेव्यः सदस्सु नृसुरैर्मुनिसोमसेनैः॥
(सोमसेन त्रि० अ० १ श्लो० ११६) जिनसेनत्रिवर्णाचारके दूसरे पर्वमें यही पद्य नम्बर ९२ पर दिया है। सिर्फ 'मुनिसोमसेनः' के स्थानमें 'मुनिजैनसेनैः बदला हुआ
हैं।
(२) शौचाचाराविधिः सुचित्वजनकः प्रोक्तो विधानागमे
पुंसां सदूव्रतधारिणां गुणवतां योग्यो युगेऽस्मिन्कलौ ॥ श्रीभट्टारकसोमसेनमुनिभिः स्तोकोऽपि विस्तारतः प्रायः क्षत्रियवैश्यविप्रमुखकृत् सर्वत्र शूद्रोऽप्रियः ॥
(सोम० त्रि० अ० २ श्लो० ११५) जिनसेनत्रिवर्णाचारमें यही पद्य तीसरे पर्वके अन्तमें दिया है। केवल ' सोमसेन ' के स्थानमें उसीके वजनका 'जैनसेन' बनाया गया है । इसी प्रकार नामसूचक सभी पद्योंमें ' सोमसेन ' की जगह ‘जैनसेन ' का परिवर्तन किया गया है। किसी भी पद्यमें 'जिनसेन' ऐसा नाम नहीं दिया है । जिनसेनत्रिवर्णाचारमें कुल १.८ पर्व हैं और सोमसेनत्रिवर्णाचारके अध्यायोंकी संख्या १३ है। पाठकों. को यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिनसेनत्रिवर्णाचारके इन १८ पर्वोमेंसे जिन १३ पौंमें सोमसेनत्रिवर्णाचारके १३ अध्यायोंकी प्रायः नकल की गई है, उन्हीं १३ पर्वोके अन्तमें ऐसे पद्य आये हैं जिनमें ग्रंथकर्ताका नाम ' सोमसेन ' के स्थानमें 'जैनसेन ' दिया है; अन्यथा शेष पांच पामें-जो सोमसेन त्रिवर्णाचारसे अधिक हैं-कहीं भी ग्रंथकर्ताका नाम नहीं है।
सोमसेन भट्टारकने, अपने त्रिवर्णाचारमें, अनेक स्थानों पर यह प्रगट किया है कि मेरा यह कथन श्रीब्रह्मसूरिके वचनानुसार है
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