Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 51
________________ ३६९ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य। “हुए, न हैं, न होहिंगे, मुनींद्र कुंदकुंद से।" -वृन्दावन। दिगम्बरजैनसम्प्रदायमें सबसे अधिक पूज्यता और महत्ता श्रीकुन्दकुन्दाचार्यको प्राप्त है। बड़े बड़े विद्वानों और आचार्योने जहाँ जहाँ अपना परिचय दिया है, वहाँ वहाँ यह कहनेमें अपना सौभाग्य समझा है कि हम कुन्दकुन्दके अन्वयमें, वंशमें, या उनके अनुयायी हैं। हमारे सम्प्रदायमें उन्हें वही प्रतिष्ठा प्राप्त है, जो किसी तीर्थप्रवर्तक या धर्मसंस्थापकको दी जाती है। जैनधर्मके असली उद्देश्योंकी और उसकी पवित्रताकी रक्षा करनेवालोंमें भगवान् कुन्दकुन्द सर्वप्रधान हैं । इस समय दिगम्बर सम्प्रदायका सबसे अधिक भाग कुन्दकुन्दकी ही आम्नायका अनुयायी है । यह सब होने पर भी बड़े ही खेदका विषय है कि हम-कुन्दकुन्दस्वामी कौन थे, कब हुए हैं और कहाँ हुए हैं-यह भी नहीं जानते । उनके विषयमें हमें जो कुछ ज्ञान परम्परासे प्राप्त हुआ है, वह बहुत ही भ्रमपूर्ण है । विद्वानोंको इस ओर सावशेष लक्ष्य देना चाहिए और परिश्रम करके कुन्कुन्दस्वामीका वास्तविक परिचय प्रकट करना चाहिए। इस विषयमें हमने जो कुछ छानबीन की है, उसका सारांश इस लेखके द्वारा प्रकट कर दिया जाता है। . नामविचार। __ आचार्यप्रवर कुन्दकुन्दका मुख्य और प्रथम नाम पद्मनन्दि था। परन्तु इनकी सबसे अधिक प्रसिद्धि — कोण्डकुन्द' या 'कुन्दकुन्द' के नामसे है। ये कोण्डकुण्ड नामक नगरके रहनेवाले थे। इसीलिए जान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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