Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 75
________________ L ३९३ थसे उपर्युक्त मंगलाचरणके दोनों पद्य उठाकर रक्खे गये हैं, उस ग्रंथका भगवज्जिनसेनके समय में अस्तित्व भी न था । भगवज्जिनसेन विक्रमकी ९ वीं शताब्दी में हुए हैं और 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रंथ श्रीअमृतचंद्रसूरिद्वारा विक्रमकी १० वीं शताब्दीके लगभग बना है । त्रिवर्णाचार के सम्पादक ने इस पुरुषार्थसिद्धयुपायसे केवल मंगलाचरणके दो पद्य ही नहीं लिये, बल्कि इन पद्योंके अनन्तरका तीसरा पद्य भी लिया है, जिसमें ग्रंथका नाम देते हुए परमागमके अनुसार कथन करनेकी प्रतिज्ञा की गई है । यथा: “लोकत्रयैकनेत्रं निरूप्य परमागमं प्रयत्नेन । अस्माभिरुपोध्रियते विदुषां पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥ ३ ॥ इस पद्यसे साफ तौर पर चोरी प्रगट हो जाती है और इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि ये तीनों पद्य पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रंथसे उठाकर रक्खे गये हैं। क्योंकि इस तीसरे पद्यमें स्पष्टरूपसे ग्रंथका नाम ' पुरुषार्थसिद्धयुपाय ' दिया है । यद्यपि इस पद्यको उठाकर रखने से ग्रंथकर्ताकी योग्यताका कुछ परिचय जरूर मिलता है । परन्तु . वास्तव में इस त्रिवर्णाचारका सम्पादन करनेवाले कैसे योग्य व्यक्ति थे, इसका विशेष परिचय, पाठकोंको इस लेखमें, आगे चलकर मिलेगा । यहाँ पर, इस समय, कुछ ऐसे प्रमाण पाठकोंके सन्मुख उपस्थित किये जाते हैं, जिनसे यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाय कि यह ग्रंथ (त्रिव - चार ) भगवज्जिनसेनका बनाया हुआ नहीं है और न हरिवंशपुराणके कर्ता दूसरे जिनसेन या तीसरे और चौथे जिनसेनकाही बनाया हुआ हो सकता है: ( १ ) इस ग्रंथ के दूसरे पर्वमें ध्यानका वर्णन करते हुए यह प्रतिज्ञा की है कि मैं ज्ञानार्णव ग्रंथके अनुसार ध्यानका कथन करता हूँ । यथा: १ आचार्य अमृतचन्द्र कब हुए हैं, इसका कोई सुदृढ प्रमाण नहीं है । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148