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थसे उपर्युक्त मंगलाचरणके दोनों पद्य उठाकर रक्खे गये हैं, उस ग्रंथका भगवज्जिनसेनके समय में अस्तित्व भी न था । भगवज्जिनसेन विक्रमकी ९ वीं शताब्दी में हुए हैं और 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रंथ श्रीअमृतचंद्रसूरिद्वारा विक्रमकी १० वीं शताब्दीके लगभग बना है । त्रिवर्णाचार के सम्पादक ने इस पुरुषार्थसिद्धयुपायसे केवल मंगलाचरणके दो पद्य ही नहीं लिये, बल्कि इन पद्योंके अनन्तरका तीसरा पद्य भी लिया है, जिसमें ग्रंथका नाम देते हुए परमागमके अनुसार कथन करनेकी प्रतिज्ञा की गई है । यथा:
“लोकत्रयैकनेत्रं निरूप्य परमागमं प्रयत्नेन । अस्माभिरुपोध्रियते विदुषां पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥ ३ ॥ इस पद्यसे साफ तौर पर चोरी प्रगट हो जाती है और इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि ये तीनों पद्य पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रंथसे उठाकर रक्खे गये हैं। क्योंकि इस तीसरे पद्यमें स्पष्टरूपसे ग्रंथका नाम ' पुरुषार्थसिद्धयुपाय ' दिया है । यद्यपि इस पद्यको उठाकर रखने से ग्रंथकर्ताकी योग्यताका कुछ परिचय जरूर मिलता है । परन्तु . वास्तव में इस त्रिवर्णाचारका सम्पादन करनेवाले कैसे योग्य व्यक्ति थे, इसका विशेष परिचय, पाठकोंको इस लेखमें, आगे चलकर मिलेगा । यहाँ पर, इस समय, कुछ ऐसे प्रमाण पाठकोंके सन्मुख उपस्थित किये जाते हैं, जिनसे यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाय कि यह ग्रंथ (त्रिव -
चार ) भगवज्जिनसेनका बनाया हुआ नहीं है और न हरिवंशपुराणके कर्ता दूसरे जिनसेन या तीसरे और चौथे जिनसेनकाही बनाया हुआ हो सकता है:
( १ ) इस ग्रंथ के दूसरे पर्वमें ध्यानका वर्णन करते हुए यह प्रतिज्ञा की है कि मैं ज्ञानार्णव ग्रंथके अनुसार ध्यानका कथन करता हूँ । यथा:
१ आचार्य अमृतचन्द्र कब हुए हैं, इसका कोई सुदृढ प्रमाण नहीं है ।
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