Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ ३९६ “ सकलवस्तुविकाश दिवाकरं भुविभवार्णवतारणनीसमं । सुरनरप्रमुखैरुपसेवितं सुजिनसेनमुनिं प्रणमाम्यहम् ॥१०-२॥ वाचिकस्त्वेक एव स्यादुपांशुः शत उच्यते। सहस्रमानसः प्रोक्तो जिनसेनादिसूरिभिः ॥ ४-१३३॥ इस सब कथनसे भी यही प्रगट होता है कि यह प्रथ भगवनिनसेन या हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेनका बनाया हुआ नहीं है। भगवजिनसेनके समयमें आदिपुराण अधूरा था. उत्तरपुराणका बनना प्रारंभ भी नहीं हुआ था और गोम्मटसार तथा जे जमित श्रीनेमिचंदका अस्तित्व ही न था। (६) इस ग्रंथमें अनेक स्थानों पर एकसंधि भट्टारककृत 'जिनसंहिता से मैकडों शोक कर व्यों के त्यो रक्खे हुए हैं । एक स्थान पर ( पाँच पर्वमें ) एकसंधि भट्टारककी बनाई हुई संहिताके अनुसार होमकुंडोंका लक्षण वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा भी की है और साथ ही तद्विषयक कुछ श्लोक भी उद्धृत किये हैं। वह प्रतिज्ञावाक्य और संहिताके दो श्लोक नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं: लक्षणं होमकुंडानां वक्ष्ये शास्त्रानुसारतः । भट्टारकैकसंधेश्च दृष्ट्वा निर्मलसंहिताम् ॥ १०३ ॥ त्रिकोणं दक्षिणे कुंडं कुर्याद्वर्तुलमुत्तरे । तत्रादिमेखलायाश्चाप्यवसेयाश्च पूर्ववत् ॥ (५-१२०) अथ राजन् प्रवक्ष्यामि शृणु भोः जातिनिर्णयम् । यस्मिन्नेव परिज्ञानं स्यात् त्रैवर्णिकशूद्रयोः ॥ (११-२)" (६) अन्तके दोनों शोक 'जिनमंहितामें ' क्रमश: नम्बर २१० और ४३ पर दर्ज हैं। एकसंधिभट्टारक भगवजिनसेनसे बहुत पीछे हुए हैं। उन्होंने खुद अपनी संहितामें बहुतमे श्लोक आदिपुराणसे उठाकर रक्खे हैं। उनमेंसे दो श्लोक नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148