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'वक्रग्रीव' नामका उल्लेख भी पट्टावलीको छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है । इस नामके एक और अत्यन्त प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं, जिनका उलेख श्रवणबेलगुलकी मल्लिषेणप्रशस्तिमें मिलता है:
वक्रग्रीवमहामुनेर्दशशतग्रीवोऽप्यहीन्द्रो यथाजातं स्तोतुमलं वचौ बलमसौ किं भग्नवाग्मिव्रजम् ॥ योऽसौ शासनदेवताबहुमतो हीवक्रवादिग्रह- .
ग्रीवोऽस्मिन्नथशब्दवाच्यमवदन्मासान्समासेन षट् ॥ ____अर्थात् " महामुनि वक्रग्रीवके बड़े बड़े वक्ताओंको हटा देनेवाले वचन बलकी स्तुति हजार प्रीवावाला धरणेन्द्र भी नहीं कर सकता है। शासनदेवीने उन्हें बहुत माना था। उन्होंने लगातार छह महीने तक 'अथ' शब्दका अर्थ किया था । उस समय बड़े बड़े . वादियोंकी ग्रीवायें (गर्दनें) लजाके मारे वक्र ( टेढ़ी) हो गई थीं।" उक्त : मलिषेण प्रशस्तिमें पहले “वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरिह कोण्डकुन्दः", इत्यादि श्लोकमें कुन्दकुन्दका वर्णन हो चुका है। उनके बाद समन्तभद्र
और सिंहनन्दीका उल्लेख करके फिर वक्रग्रीवकी प्रशंसा की गई है। इससे मालूम होता है कि वक्रग्रीव कुन्दकुन्दसे पृथक् दूसरे एक महान् विद्वान् हो गये हैं और पट्टावलीके लेखकके कथनानुसार कुन्दकुन्दका ही नाम वक्रग्रीव न था। । इस बातका भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता कि एलाचार्य कुन्दकुन्दका नाम था । इस नामके भी एक दूसरे अतिशय प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं। वे चित्रकूटपुरके रहनेवाले थे और भगवजिनसेनके गुरु वीरसेनने उनके निकट जाकर सिद्धान्त शास्त्रोंका अध्ययन किया था। यथाः• काले गते कियत्यपि ततः पुनाश्चित्रकूटपुरवासी।
श्रीमानेलाचार्यो बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः ॥ १७७
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