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“अथ श्रीकुमारनन्दिसैद्धान्तिकदेवशिष्यैः प्रसिद्ध कथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञसीमन्धरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा च तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवर्णश्रवणादवधारितपदार्थसमूहैः बुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थ गृहीत्वा पुनरप्यागतैः श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवैः पद्मनन्द्यपरनामधेयैरन्तस्तत्त्ववाहस्तत्त्वगौणमुख्यप्रतिपत्यर्थम् अथवा शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रतिबोधार्थ विरचिते पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रे यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वकं ताप्तर्यार्थव्याख्यानं कथ्यते।" । इससे मालूम होता है कि कुन्दकुन्दाचार्य-जिनका कि दूसरा नाम पद्मनन्दि था-कुमारनन्दि सैद्धान्तिकदेवके शिष्य थे, परन्तु ये दोनों मत इतने अर्वाचीन हैं कि इनकी सत्यताके विषयमें निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जासकता । श्रुतावतारमें अर्हद्वलिके बाद माघनन्दि और फिर धरसेनादि गुरुओंका वर्णन कर दिया है-माघनन्दिके बाद न जिनचन्द्रका उल्लेख है और न कुमारनन्दिका । श्रवणबेलगुलके लेखोंमें भी कुन्दकुन्दके गुरुका कहीं उल्लेख नहीं है । जगह जगह भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तका वर्णन करके फिर कुन्दकुन्दका वर्णन किया गया है और उस वर्णनमें आचार्य परम्पराका प्रारंभ कुन्दकुन्दसे ही किया जाता है । नन्दिसंघके वे सबसे पहले आचार्य गिने जाते हैं । यह किसीको भी मालूम नहीं है कि उनके गुरु कौन थे । उनके
१-अर्थात् कुन्दकुन्दाचार्य कुमारनन्दिके शिष्य थे । उनका दूसरा नाम पद्मनन्दि था। उनके विषयमें यह कथा प्रसिद्ध है कि वे एक बार पूर्व विदेहको गये । वहाँ सीमन्धरस्वामीके दर्शन करके और उनकी वाणी सुनकर उन्होंने पदार्थों का स्वरूप समझा। आत्मतत्त्वका सार ग्रहण करके वे लौट आये और तब उन्होंने अन्तस्तत्त्व बहिस्तत्त्वको गौणमुख्यरूपमें प्रतिपादन करनेके लिए अथवा शिवकुमार महाराजादि संक्षेपरुचि शिष्योंको समझानेके लिए पंचास्तिकाय प्राभृतकी रचना की।
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