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पता नहीं चलता । उनका यह प्राकृतप्रेम दिखला रहा है कि उनक लक्ष्य अपना पाण्डित्य प्रकट करनेकी ओर नहीं, किन्तु सर्वसाधारणका, उपकार करनेकी ओर था । क्यों कि उस समयकी साधारणजनता संस्कृतकी अपेक्षा प्राकृतको सुगमतासे समझ सकती थी। उनके बनाये हुए नीचे लिखे ग्रन्थ उपलब्ध हैं:--
१ समयसार प्राभृत ( पाहुड ), २ पंचास्तिकाय प्राभृत, ३ प्रवचनसार प्राभृत, ४ षट्प्राभृत या षट्पाहुड़ ( १ दर्शन पाहुड, २ २ सुत्त पाहुड़, ३ चारित्त पाहुड़, ४ बोध पाहुड़, ५ भाव पाहुड़, ६मोक्ख पाहुड़), ५ रयणसार, ६ बारह अणुबेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा)
और ७ नियमसार । इनमेंसे पहले छहों ग्रन्थ छप चुके हैं । सातवाँ प्रन्थ नियमसार संस्कृतटीका और श्रीयुक्त ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकृत भाषाटीका सहित छप रहा है। ___षट्खण्ड सिद्धान्तके आदिके तीन खण्डोंकी एक बड़ी भारी टीका भी कुन्दकुन्दस्वामीकी बनाई हुई है । इस टीकाका प्रमाण १२ हजार श्लोक है। इसका उल्लेख श्रुतावतारमें किया गया है; परन्तु इस समय उपलब्ध नहीं है। ऐसा प्रसिद्ध है कि कुन्दकुन्द भगवानने सब मिलाकर ८४ पाहुड या प्राभतोंकी रचना की थी। इनमें से कुछका उल्लेख तो ऊपर हो चुका है, शेषमेंसे इतने पाहुड़ोंका नाम और भी मालूम हुआ है:
१ जोणीसार, २ क्रियासार, ३ आराहणासार, ४ लब्धिसार, ५ छपणासार, ६ बंधसार, ७ तत्त्वसार, ८ अंगसार, ९ द्रव्यसार, १० क्रमपाहुड, ११ पयपाहुड़, १२ विद्यापाहुड़, १३ उघातपाहुड़, १४ दृष्टिपाहुड़, १५ सिद्धांतपाहुड़, १६ तोयपाहुड़, १७ चरणपाहुड़ १८ समवायपाहुड़, १९ नयपाहुड़, २० प्रकृतिपाहुड़, २१ चूर्णीपाहुड, १ देखो, इस लेखके प्रारंभके ‘एवं द्विविधो ' आदि श्लोक ।
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