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कनडी भाषामें 'राजावली' नामका एक ग्रन्थ है। उसमें इसी ढंगकी एक कथा पूज्यपाद या देवनन्दिस्वामीके विषयमें भी लिखी है । अर्थात् उसके मतसे पूज्यपाद भी अपनी शंकाओंका निरसन करनेके लिए सीमंधर जिनके समवसरणमें गये थे और इसी कारण लोग उनसे 'जिनेन्द्रबुद्धि ' कहने लगे थे।
उमास्वामीके विषयमें भी यही कथा प्रसिद्ध है । वास्तवमें गृध्रपिच्छाचार्य इन्हींका नाम था और इस कथामें जो गृध्रके पंखोंकी पिछी ले लेनेकी बात है, वह इन्हींके नामका कारण बतलानेके लिए कही गई है । कुन्दकुन्दाचार्यका नाम गृध्रपिच्छ न था। मालूम होता है, इस बातको न जानकर इस कथाका उक्त अंश उमास्वातिकी कथासे ही ले लिया है। ..
इस समय यह निर्णय करना कठिन है कि विदेह क्षेत्रमें जानेकी बात किसी एकके विषय सही है, अथवा तीनोंके विषयमें सही है। __ ब्रह्मदेवने पंचास्तिकायकी उत्थानिकामें कहा है कि यह ग्रन्थ शिवकुमार महाराजादि संक्षेपरुचि शिष्यों के लिए बनाया गया है । प्रवचनसारं टीकाकी उत्थानिकामें श्रीजयसेनाचार्यने भी शिवकुमार महाराजके लिए ग्रन्थ निर्मित होनेका उल्लेख किया है। मालूम नहीं, राजा शिवकुमार कब और कहाँ हुए हैं। प्रो० पाठकने कुछ प्रमाण ऐसे संग्रह किये हैं जिनसे मालूम होती है कि शिवकुमार राजा गुप्तवंशी राजाओंके समयमें हुए हैं। संभवतः उनका समय ईसाकी चौथी शताब्दी होगा।
ग्रन्थरचना। भगवान् कुन्दकुन्दके जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे सब प्राकृत भाषामें हैं । संस्कृतमें उन्होंने कोई ग्रन्थ लिखा है या नहीं, इसका
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