Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 66
________________ ३८४ वचनोंका और ऊँचे चरित्रका उस पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा । उसे संसारसे विरक्ति हो गई। उसके हृदयमें मोक्षमार्गके अन्वेषणकी इच्छा प्रबल हो उठी । वह जिनचन्द्रमुनिका शिष्य हो गया और उनके संघके साथ ज्ञानार्जन करता हुआ भ्रमण करने पहि। इस समय उसकी अवस्था केवल ११ वर्ष की थी ! मातापिताको बहुत दुःख हुआ, परन्तु वेचारे करते क्या ? - "कुन्दकुन्दकी गणना जिनचन्द्रके मुख्य शिष्योंमें होमन्तमें ३३ वर्षकी अवस्थामें उन्हें आचार्यपद मिल गया। ये होता है त हुए और आत्मनिरीक्षण करते हुए यतस्ततः विहार करने लगे। एक बार उन्हें जैनधर्मके कुछ सिद्धान्तोंके विषयमें कुछ शंकायें उत्पन्न हुई, परन्तु उससमय उनका निवारण करनेवाला कोई न था। इस लिए निरुपाय होकर वे तपस्या करने लगे और ध्यानका विशेष अभ्यास करने लगे। ___ "एक बार ध्यानस्थ होते समय उन्होंने सीमंधरस्वामीको त्रिकरण शुद्धिसे नमस्कार किया। सीमंधर स्वामी विदेहक्षेत्रमें समवसरणसभामें विराजमान थे। उनकी दिव्यध्वनिमें उसी समय 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' यह वाक्य निकला । किसीके प्रश्न करने पर-कि यह आर्शीवाद किसके दिया गया-उतर मिला कि भरतक्षेत्रके अमुक स्थानमें कुन्दकुन्द मुनि हैं। उन्हें कुछ शंकायें हो रही हैं। उन्होंने इसी समय मुझे नमस्कार किया है, जिसका यह आर्शीवाद दिया गया। ___ "यह बात दो भाइयोंने सुनी। वे कुन्दकुन्दके पूर्वजन्मके मित्र थे । इस लिए वहाँसे चलकर वे बाराँके उद्यानमें कुन्दकुन्दके स्वामीके पास आये और सब समाचार सुनाकर उन्हें अपने विमानमें बिठाकर विदेहक्षेत्रको ले गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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