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हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिमें भी यही बात लिखी है कि निर्वाणके ६८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही है । तथा:त्रयः क्रमाकेवलिनो जिनात्परे द्विषष्टिवर्षान्तरभाविनो भवत् । ततः परे पंच समस्तपूर्विणस्तपोधना वषेशतान्तरे गताः॥ त्र्यशीतिके वर्षशते तु रूपयुक दशैव गीता दशपूर्विणः शते। द्वये च विशेगभृतोऽपि पंच ते शते च साष्टादशके चतुर्मुनिः ॥ ___ भगवजिनसेनकृत आदिपुराणके द्वितीय पर्वमें भी ( देखो श्लोक १३९ से १५० तक) इसी मतको पुष्ट किया है । तीनों ही ग्रन्थ प्राचीन और प्रामाणिक हैं, इसलिए इस विषयमें कोई सन्देह नहीं रहा कि वीरनिर्वाण संवत् ६८३ तक अर्थात् विक्रम संवत् २१३ तक अंगज्ञानका अस्तित्व रहा है। - श्रुतावतारके अनुसार “ इसके बाद विनयधर, श्रीदत्त, शिवइत्त और अर्हद्दत्त अंगपूर्वके कुछ अंशोंके ज्ञाता हुए । इनके पीछे पुण्टवर्धनमें अंगपूर्वाशके एक शाखाके जानकार श्रीअर्हद्वलि हुए । इन्होंने नन्दि, सेनादि संघोंकी स्थापना की। इनके बाद माघनन्दि मुनि भी अंगपूवांशदेशज्ञ हुए और समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए। फिर कर्मप्राभृतके ज्ञाता धरसेनाचार्य हुए। उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्तको पढ़ाया । फिर इन दोनोंने कर्मप्राभूतके षट्खण्डशास्त्रोंकी रचना की।
१ इस विषयमें अब कोई मन्देह नहीं रहा है कि विक्रमादित्यसे ४७० वर्ष पहले महावीर भगवानका निर्वाण हुआ था । त्रैलोक्यसारादि कई ग्रन्थोंके प्रमाणोंसे यह बात सिद्ध हो चुकी है । श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे भी यही समय निश्चित होता है।
२ पट्टावलीके लेखकके मतसे लोहाचार्यके बाद अर्हदलि, माधनन्दि, धरसेन, भूतबलि और पुष्पदन्त भी अंगज्ञानी हैं । परन्तु यह ठीक नहीं।
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