Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 56
________________ इन श्लोकोंसे यह भ्रम हो जाता है कि 'गृध्रपिच्छ ' यह नाम उमास्वातिका नहीं, किन्तु उनके शिष्यका था और वे संभवतः कुन्दकुन्द ही होंगे । क्योंकि पट्टावलीके लेखकने उनका एक नाम यह भी बतलाया है । परन्तु यह केवल भ्रम ही है । उमास्वातिके शिष्यका बलोकपिच्छ नामक प्रधान शिष्य था। इसका वर्णन अनेक स्थानोंमें आया है । चूँकि उमास्वातिका नाम गृध्रपिच्छ था, इसलिए संभव है कि शिष्यत्वके कारण उसे भी लोग गृपिच्छ कहने लगे हों। __तीसरे मतका उल्लेख पं० कल्लापा भरमापा निटवेने संस्कृत सर्वाथसिद्धिकी भूमिकामें किया है। परन्तु यह बिलकुल ही विश्वासके योग्य नहीं है। क्योंकि एक तो इस विषयमें उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया है और दूसरे इन दोनों विद्वानोंकी रचनायें जुदा जुदा ढंगकी हैं। एक संस्कृतके और दूसरे प्राकृतके लेखक हैं; एक गूढ़ दर्शनशास्त्रके प्रणेता हैं और दूसरे शुद्ध अध्यात्मको सरलसे सरल भाषामें समझानेवाले हैं। इस कल्पनाकी उत्पत्ति कि दोनों एक ही थे, संभवतः दोनोंकी विदेहगमनकी कथाओंसे तथा गृध्रपिच्छ नामके भ्रमसे हुई जान पड़ती है। - कुन्दकुन्दके गुरु कौन थे ? इस विषयमें भी मतभेद है । पट्टावलीके दो श्लोकोंसे-जो पूर्वमें । उद्धृत हो चुके हैं-मालूम होता है कि आचार्य माघनन्दिके शिष्य जिनचन्द्र और जिनचन्द्रके शिष्य या उनके उत्तराधिकारी कुन्दकुन्दाचार्य थे। श्रीब्रह्मदेवने पंचास्तिकायसमयसारकी एक संस्कृतटीका लिखी है । उसकी उत्थानिकामें वे लिखते हैं:१- श्रीगृध्रपिच्छमुनिपस्य बलाकपिच्छः शिष्योऽजनिष्ट भुवनत्रयवर्तिकीर्तिः चारित्रचञ्चुरखिलावनिपालमौलिमालाशिलीमुखविराजितपादपद्मः ॥ -श्र० बे० का ४० वाँ लेख : Jain Education International For Personal & Private Use Only ___www.jainelibrary.org

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