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३६८ अधिकता होगी। अर्थात् आत्मामें ज्ञानका न्यून वा अधिक होना आत्मामें ज्ञानावरणीय कर्मके न्यून या अधिक होनेपर निर्भर है । दूसरा कर्म दर्शनावरणीय है। इसका यह स्वभाव है कि यह आत्माकी देखनेकी शक्तिको रोकता है। आत्मामें देखनेकी शक्तिका न्यूनाधिक होना इसी कर्मके न्यूनाधिक होने पर निर्भर हैं। तीसरा कर्म मोहिनीय है । इसका स्वभाव यह है कि । आत्माको संसारके मोहमें फँसाकर आत्मानुभव और आत्म सुखसे वंचित रखता है। चौथा कर्म अन्तराय है । इसका पर स्वभाव है कि यह आत्माको उसकी शक्तियोंको स्वतन्त्रतापूर्वक व्यवहारमें लानेसे रोकता है-उनमें बाधा डालता है । ये चार कर्म घातिया कर्म कहलाते हैं । क्योंकि ये जीवके असली स्वभाव
और उसकी असली शक्तिको नष्ट करते हैं । पाँचवाँ कर्म आयु है । इसका यह यह स्वभाव है कि यह जीवको किसी शरीरमें नियत समयतक रखता है। आयुकी संख्या इसी कर्मप्रकृतिके परमाणुओंकी संख्या पर निर्भर है । छट्ठा कर्म वेदनीय है । इसका काम आत्माके लिए दुनिया सुखदुखकी सामग्री इकट्ठा करना है । कोई आदमी तो दुनियामें बड़े धनी और सुखी देखे जाते हैं, कोई कोई दुःखी, रोगी और निर्धन देखने में आते हैं। यह सब इस वेदनीय कर्मका खेल है। सातवाँ कर्म नाम है। इसके उदयसे शरीरके अगोपांग, आकृति, रूप, रंग आदि बनते हैं। आठवाँ कर्म गोत्र है जिसके उदयसे उच्च, नीच कुलमें जन्म होता है। इस प्रकार जीवकी समस्त संसारी अवस्थायें इन कर्मों के कारण होत हैं। जब जीव राग द्वेषको नष्ट करके कर्मों पर विजय पाता है उस समय यह निजस्वरूप अर्थात् परमात्मपदको प्राप्त कर लेत है। इसी का नाम मोक्ष है।
दयाचंद्र गोयलीय, बी. ए.।
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