Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 35
________________ ३५३ अन्ध संस्कार जमने ही न देना चाहिए कि पुस्तकें पढ़ने को ही सीखना कहते हैं । यह बात उन्हें पद पद पर जतलाते रहना चाहिए कि पुस्तकों में जो कुछ ज्ञान संचित है वह प्रकृतिके अक्षय भाण्डारमेंसे ही हरण किया गया है। अर्थात् मनुष्य, प्रकृतिके प्रत्यक्ष परिचयसे जो कुछ जानता है, उसे ही पुस्तकोंमें लिख जाता है । इस समय पुस्तकोंका उपद्रव बहुत ही अधिक बढ़ गया है, इसलिए इसे बहुत ही बढ़ाकर समझा देनेकी भी जरूरत है । अति प्राचीन कालमें लिपिका प्रचार हो जाने पर भी तपोवनों में पुस्तकोंका व्यवहार न हुआ था। उस समय गुरु मौखिक (जवान ) शिक्षा देते थे और शिष्य उस शिक्षाको नोट बुक या पाकेट बुक नहीं, किन्तु मनमें लिख लिया करते थे । इस तरह एक दीपशिखा से दूसरी और दूसरीसे तीसरी दीपशिखाके जलनेका क्रम जारी रहता था । यद्यपि इस समय ठीक वैसाका वैसा नहीं हो सकता है, तो भी जहाँ तक बने विद्यार्थियोंको पुस्तकों के आक्रमण से बचाये रखना चाहिए । बन सके तो छात्रोंको दूसरोंकी रचना पढ़नेको दी ही न जाय. वे गुरुके पास जो कुछ सीखें, उसीकी उनसे रचना कराई जाय । अर्थात् जिन बातोंके उन्होंने भली भाँति हृदयस्थ कर लिया हो, उन्हींको उनकी भाषामें लिपिबद्ध कराया जाय – बस, यही रचना उन्हें पढ़ने के लिए दी जाय । ऐसा होनेसे यह बात उनके मनमें भी कभी न आयगी कि ग्रन्थ आकाशसे पड़े हुए वेदवाक्य हैं । वे समझने लगेंगे कि जिस तरह हमने अपने विचार लिपिबद्ध कर लिये हैं, उसी तरह प्राचीन कालके विद्वान् भी अपने विचारोंको लिख गये हैं-ग्रन्थ ईश्वरके बनाये हुए नहीं है । " भारतवर्ष के मूलनिवासी अनार्य लोग हैं । आर्य लोग यहाँ मध्य एशियासे आये हैं ।" " ईसाके जन्मके दो हज़ार वर्ष पहले वेदोंकी रचना हुई थी ।" ये सब बातें हमने पुस्तकोंसे सीखी www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only

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