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हैं। पुस्तकोंके अक्षर काटाकूटीसे रहित निर्विकार होते हैं । वे बचपन में हम लोगों पर एक प्रकारके सम्मोहन मंत्रका प्रयोग करते हैं और इसी लिए हम लोगोंके समीप उक्त सब बातें देववाणीके समान सर्वथा विश्वास योग्य बन गई हैं। बच्चोंको पहलेहीसे यह समझा देना चाहिए कि, ये सब आनुमानिक बातें हैं और थोडीसी युक्तियों पर इन सबका दारोमदार है। यदि बन सके, तो इन सब युक्तियोंके मूल उपकरण छात्रों के आगे रखकर उनकी खुदकी अनुमानशक्तिको उत्तेजित करना चाहिए । अर्थात् उन्हें इस योग्य बना देना चाहिए कि वे स्वयं भी इस तरहके नये नये अनुमान कर सकें । यदि वे पहलेहीसे अपने मनमें धीरे धीरे थोडा थोडा इस बातका अनुभव करते रहेंगे कि पुस्तकें किस तरह और कैसे कैसे अनुमान प्रमाणोंसे तैयार की जाती हैं, तो अवश्य ही वे पुस्तकोंका यथार्थ फल पालेंगे और उनके अन्धशासनसे अपना छुटकारा करा सकेंगे। साथ ही अपने स्वाधीन उद्यमके द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेकी जो उनकी स्वाभाविक मानसिक शक्ति है, वह गर्दनके ऊपर बाहरसे बोझा लाद देनेवाली विद्याके द्वारा आच्छन्न और मूर्छित न होने पावेगी-पुस्तकोंके ऊपर उनके मनका स्वामित्व पूरा पूरा बना रहेगा । बालक थोड़ा बहुत जो कुछ सीखें, यदि सीखते समय उसका प्रयोग करना भी सीख लें, तो शिक्षा उनके ऊपर न चढ़ पावेगी-चे ही शिक्षाके ऊपर चढ़ बैठेंगे । इसमें सन्देह नहीं कि हमारी इस बातका अनुमोदन करनेमें लोग आनाकानी न करेंगे; परन्तु जब इसके अनुसार काम करनेका मौका आयगा, तब ठंडे हो जावेंगे । वे सोचेंगे कि बालकोंको शिक्षा इस तरहसे दी ही नहीं जासकती । यह बिलकुल असंभव है। ठीक ही है-ये लोग जिसे शिक्षा समझते हैं, वह इस तरह सचमुच ही नहीं दी जासकती । थोडीसी पुस्तकें तथा थोडेसे
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