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विषय नियत कर देना और नियत समयके भीतर नियत प्रणालीसे परीक्षा ले लेना, इसीको ये लोग विद्या सिखलाना कहते हैं और जहाँ इस प्रणालीसे शिक्षा दी जाती है, उसीको विद्यालय कहते हैं । उनकी समझके अनुसार मानो विद्या एक स्वतन्त्र (जुदा) पदार्थ है; उसे यदि देखना हो तो उनकी बुद्धिके अनुसार बालकके मनसे अलग-कुछ अन्तर पर देखना चाहिए । अर्थात् पुस्तकोंके पत्र अथवा अक्षरोंकी संख्या गिनकर बालकोंकी विद्याका हिसाब लगाना चाहिए। भले ही इस विद्यासे छात्रोंका मन पिचल जाय, भले ही वे पुस्तकोंके गुलाम बन जायँ, भले ही उनकी स्वाभाविक बुद्धि मूछित हो जाय, भले ही वे अपनी स्वाभाविक शक्तियोंके द्वारा ज्ञानको अधिकृत करनेकी शक्तिको अनाभ्यास और कष्टकर शासनके वश सदाके लिए खो बेठे, पर कहेंगे इसे विद्या । ___ बालकोंका मन जितनी शिक्षाके ऊपर अपना स्वामित्व जमा सके, उतनी ही शिक्षा-चाहे वह थोड़ी ही क्यों न हो-सच्ची शिक्षा है । और जो ' शिक्षा ' नाम धारण करके भी उनके मनको ढंक देती है उसे पढ़ाना भले ही कह लीजिए, पर शिक्षा या सिखाना तो उसे नहीं कह सकते । विधाताने जान लिया था कि आगे मनुष्य स्वयं अपने ही ऊपर अनेक अत्याचार करेगा । इस लिए उसने मनुष्यको पहलेहीसे बहुत मजबूत बना दिया है । इसी कारण गुरुपाक अखाद्य खाकर अजीर्ण भोगकर भी मनुष्य बचा रहता है और बचपनसे शिक्षाके असह्य कष्ट सहन करके भी बहुत विद्या प्राप्त कर लेता है
और उसके कारण गर्व तक करने लगता है ! अर्थात् हमारी शिक्षाप्रणाली इतनी कष्टकर है कि उससे हमारी मानसिक शक्तियोंका जीवित रहना ही कठिन था, परन्तु विधाताने हमारी इस शक्तिको
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