Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ ३५१ नहीं चाहते कि उक्त दो प्रकारके कथनों में कौनसा सच है और कौनसा झूठ: किन्तु यह बतला देना चाहते हैं कि हम लोग विलायत के प्रचलित रवाजों और मतोंको जो गन्धमादन पर्वतके समान नीचे से ऊपरतक उखाड़कर ले आनेके लिए तत्पर हो जाते हैं और इस बातका कभी विचार भी नहीं करते हैं कि ऐसा करना योग्य है या नहीं सो इसका कारण यह हैं कि इन सब बातों को हमने बचपन से ही पुस्तकों के द्वारा सीखा है और हमें जो कुछ शिक्षा मिली है वह सब पुस्तकों की शिक्षा है। वह उधार ली हुई चीज़ है, स्वयं अपनी कमाईकी नहीं। हमारे देश के शिक्षित लोग भी पुस्तकों और वचनोंके विवर में पड़े हुए हैं, इसलिए उन पर भी निरानन्दकी छाया दिखलाई दे रही है । इन विवरवासियों में न तो सहृदयता है, न मिलना जुलना है और न 1 * साहजिक हँसी खेलकी बातें हैं। इसके दो कारण बतलाये जाते हैंएक तो यह कि जीवन के निर्वाहका बोझा बहुत बढ़ गया है, इसलिए इनमें इतनी अवसन्नता दिखलाई देती है और दूसरा यह कि सर्व प्रकार सामाजिक सम्बन्धविहीन और ममताशून्य राजशक्तिका कोडा शिक्षितों की पीठ पर हमेशा ही पड़ा करता है, इस लिए इन पर इतनी उदासी छाई रहती है। इसमें सन्देह नहीं कि शिक्षितों की निरानन्दताके ये भी कारण हैं; परन्तु इनके साथ ही उनके अत्यन्त क्रत्रिम अप्राकृतिक लिखने पढने की ताडना भी कोई छोटा मोटा कारण नहीं है - यह भी एक जबर्दस्त कारण है । बिलकुल ही बचपन से पढ़ने लिखनेका पीसना शुरू कर दिया जाता हैं । इस ज्ञानलाभके साथ मनका योग या सम्बन्ध बहुत ही कम रहता है और यह ज्ञान आनन्द के लिए प्राप्त भी नहीं किया जाता - यह मुख्यतः प्राण या पेटके लिए और गौणरूपसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148