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१२३. इसमें न्यायके शब्दोंकी परिभाषा लिखी है और विशेष कर बौद्ध नैयायिकोंके मतका खूब खंडन किया गया है । इसमें बहुतसे लेखकों और ग्रंथोंका उल्लेख है।
यशोविजय गणि ( सन् १६८० ई०) १२४. यशोविजय श्वेताम्बरसंप्रदायके थे। ये न्यायप्रदीप, तर्का. भास, न्यायरहस्य, न्यायामृततरंगिणी, न्यायखंडखाद्य, अनेकांतजैनमतव्यवस्था, ज्ञानबिन्दुप्रकरण, इत्यादि ग्रंथों के प्रसिद्ध कर्ता थे। इन्होंने दिगम्बर ग्रंथ अष्टसहस्री पर अष्टसहस्रीवृत्ति नामक टीका भी लिखी।
१२५. इनकी परम्परा हीरविजयसूरिसे है जो अकबरके समयके प्रसिद्ध सूरि थे। इन्होंने सन् १६८८ ई० में बडौदा राज्यांतर्गत डभोईमें स्वर्गवास किया। इनके चिरस्मार्थ बनारसमें एक जैन यशोविजय पाठशाला स्थापित की गई है, जिसके संरक्षणमें जैनियोंके पवित्र ग्रंथ जैनयशोविजयग्रंथमालामें प्रकाशित हो रहे हैं।*
मोतीलाल जैन, आगरा। समाप्त।
आवरण।
(गतांकसे आगे) इस प्रकारकी अवस्थाका स्वाभाविक परिणाम निरानंद होता है, अर्थात् जब स्वाधीन मनुष्य पुस्तकका मनुष्य बन जाता है, तब उसके स्वाभाविक आनन्दका द्वार बन्द हो जाता है।
* अवकाशाभावके कारण मैं इस बार लेखको स्वयं न लिख सका। इसे मेरे मित्र श्रीयुत बाबू मोतीलालजी आगरानिवासीने मेरे लिए लिख देनेकी कृपा की है, जिसके लिए मैं उनका हृदयसे आभार मानता हूँ। दयाचन्द गोयलीय ।
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