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उधर कहा कि उसका मिजाज बिगड़ जाता है, वह तत्काल ही अन्य जातिको हेय और अपने सम्प्रदायको श्रद्धेय सिद्ध करने लगता है । समाजकी जटिल अवस्थामें मनुष्यके मन और हृदयकी ऐसी ही हालत हो जाती है।
मनुष्यके मनके चारों ओर पुस्तकोंका एक सघन बन दूर तक फैल गया है । इसकी मस्त गन्धने हमें मतवाला बना दिया है । यह गन्ध हमें एक डालीसे दूसरी और दूसरीसे तीसरी पर भी लटका कर मारती तो है; परन्तु वास्तविक आनन्द और गहरी तृप्ति नहीं देती । और नाना प्रकारके उपद्रव बढ़ाती तथा मनोविकार उत्पन्न करती रहती है, सो जुदा ही। . ____ जो वस्तु सहज और स्वाभाविक होती है, उसमें यह खूबी रहती है कि उसका स्वाद कभी पुराना नहीं होता-उसकी सरलता उसे सदा ही नया बनाये रखती है । वास्तविक स्वभावकी बातको मनुष्यने आज तक जितनी बार कहा है, उतनी ही बार वह नई मालूम हुई है । पृथ्वी पर इस तरहकी स्वाभाविक बातें कहनेवाले दो तीन महाकाव्य हैं, जो हजारों वर्ष बीत जाने पर भी पुराने या फीके नहीं पड़े । निर्मल जलकी तरह उनसे हमारी प्यास बुझ जाती है और एक अपूर्व तृप्ति भी मिलती है । मदिराकी तरह उत्तेजनाके शिखर पर चढ़ाकर सूखे अवसाद या खेदकी तलीमें पटकनेका गुण उनमें बिलकुल नहीं है। यह सहज स्वाभाविक वस्तुकी बात है । किन्तु सहजसे ज्यों ही कुछ दूर पड़े कि उत्तेजना और अवसादके बीचमें धान कुटनेकी ढेंकी बन जाना पड़ता है । उपकरणों और आडम्बरोंसे सजीधजी हुई अति सभ्यताकी यही तो बड़ी भारी व्याधि है। __इस जंगलके भीतर रास्ता खोजकर, इस ढेरकी ढेर पुस्तकों और वचनोंके आवरणको जुदाकर, यदि समाजके भीतर और
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