Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 22
________________ ३४० आनन्दसूरि और अमर चंद्रसूरि ( ई० स० १०७३ - ११५० ) १०९. इन दोनोंका जन्म गुजरात में हुआ था । ये बड़े भारी नैयायिक थे । क्योंकि इन्होंने किशोर अवस्था में ही अपने गजसमान प्रतिवादियोंपर विजय पाई थी, इस लिए इनके उपनाम व्याघ्रशिशुक और सिंहशिशुक पड़ गये थे । चूंकि सिद्धराज - जिन्होंने इनको उपनाम दिये थे, सन् १०९३ ई० में सिंहासनारूढ हुए - अतएव ये अवश्य ही ईसाकी बारहवीं शताब्दि में हुए होंगे । हरिभद्रसूरि (१९६८ ई० के लगभग ) ११०. हरिभद्रसूरि नामके दो श्वेताम्बर जैनलेखकों का उल्लेख मिलता है। एकने सन् ४७८ ई० में स्वर्गवास किया और दूसरे जो नागेन्द्रगच्छके आनंदसूरि और अमरचन्दसूरिके शिष्य थे, सन् १९६८ ई० के लगभग विद्यमान थे। दूसरे हरिभद्रसूरि "कलिकाल गौतम " कहलाते थे। यदि हम उनको पदर्शनसमुच्चय, दशवैकालिक नियुक्ति, न्यायप्रवेशिका सूत्र और न्यायावतार - वृत्तिके कर्ता मानें, तो वे अवश्य प्रसिद्ध नैयायिक थे । १११. यह बहुधा कहा जाता है कि हरिभद्र सूरिने अर्हत् भगवानकी वाणीकी १४०० ग्रंथ लिख कर माता के समान रक्षा की । उन्होंने अपने प्रत्येक ग्रंथके अंतिम पद्य में 'विरह' शब्दका प्रयोग किया है । वे जाति ब्राह्मण थे। कहते हैं कि उनके दो शिष्य हंस और परमहंस जैनधर्मका प्रचार करनेके लिए गये, परन्तु उनको भोटा देश (तिब्बत) में क्रोधित बौद्धोंने - जिनको वे जैन बनाना चाहते थे - मार डाला । इन दोनों शिष्यों की मृत्युका शोक ही 'विरह' शब्द के रूप में प्रकट किया गया है । ११२. यह बहुधा माना जाता है कि हरिभद्रसूरि जिनके शिष्य तिब्बत में मारे गये थे, इस नामके प्रथम लेखक है । परन्तु यदि हम For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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