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३. नाम-सिरोर में बीब हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्ष का उदय हो जसमाम कर्म कहते हैं।
४. गोत्र-चोर को उच्च या नीच बाबरप बाले कुल में उत्पा होने में जिस कर्म का उदय हो, उसे गोत्र कर्म कहते हैं।'
अष्ट-कमों के पूर्णतः क्षय हो जाने पर प्राणी मावागमन परक भव-यक से मुक्ति प्राप्त करता है । धातिया-अधातिया सभी कर्म-कुल को तमाम करने के लिए पूजक विवेष्य काव्य में जिनेन्द्र भक्ति का माधव देता है। अठारहकों शती के बैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में इन कर्मा की कमशः पर्चाई है। धी बृहत् सिदचक पूजा काव्य में कविवर चानतराय ने स्पष्ट लिया है कि जिस प्रकार मूर्ति के ऊपर पट गलने से उसका रूप परिलक्षित नहीं होता उसी प्रकार जानावरणी कर्म से जीव अज्ञानी हो जाता है। मानावरणी कर्म नष्ट होने पर केवल ज्ञान प्रकट होता है, यहाँ केवल ज्ञानधारी सिद्ध भगवान को मनसा, वाचा, कर्मणा उपासना करने की संस्तुति की गई है।' जिस प्रकार दरवान भूपति के दर्शन नहीं करने देता, उसी प्रकार दर्शनाधरणीकर्म शानी को देखने में बाधा उपस्थित करता है। वर्शनावरणी कर्म क्षय होने पर केवल दर्शन रूप प्रकट होता है। दर्शनावरणी कर्म क्षय के लिए सिखोपासना आवश्यक है। कर्मवेदनी कर्मोदय से साता-असाता बेबनाएं
१. अभ्रंश वाङमय में व्यवहत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रचंडिया
'दोति', महावीर प्रकाशन, अलीगंज, एटा, सन् १९७७, पृष्ठ ३ । २. मूरति ऊपर पट करौ, रूप न जाने कोय ।
ज्ञानावरणी करमते, जीव अज्ञानी होय ॥ -श्री वृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, धानतराय, श्री जैन पूजापाठ संग्रह,
६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ २३७ । ३. ज्ञानावरणी पंच हत, प्रकट्यो केवल ज्ञान
द्यानत मनवच काय सौं, नमो सिद्ध गुण खान
-श्री बहृत् सिद्ध चक्रपूजा भाषा, धानतराय, वही पृष्ठ २३७ । ४. जैसे भूपति दरश को, होन न दे दरवान ।
तेसे दरशन आवरण, देख न देई सुजान ॥
--श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, धानतराय, वही पृष्ठ २३८ । ५. दरशन आवरण, हत, केवल दर्शन रूप ।
द्यानत सिद्ध नमों सदा. अमन-अचल चिद्रप ॥ -श्री बृहत् सिद्ध पक्रपूजा भाषा, धानतराय, वही पृष्ठ २३८ ।