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प्रतीक-योजना
भावाभिव्यक्ति में सरलता, सरसता तवा स्पष्टता उत्पन्न करने के लिए रस सिद्ध कवि प्रायः प्रतीक-योजना का प्रयोग करते हैं। विस्तार की व्यवस्था में प्रतीकों का सहयोग उल्लेखनीय है क्योंकि प्रतीक भाव की गहता में और संक्षिप्तता में सहायक हुमा करते हैं।
बन-हिन्दी-पूजा कवियों के समक्ष काव्य-सृजन का लक्ष्य अपने भावों तबाबासनिक विचारों के प्रचार प्रसार का प्रवर्तन करना ही प्रधान रूप से या है। धार्मिक साहित्य की भांति जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में प्रयुक्त प्रतीकों को हम निम्न रूपों में विभाजित कर सकते हैं
(१) आत्मबोधक प्रतीक (२) शरीरबोधक प्रतीक (३) विकार और दुःस विवेचक प्रतीक
(४) गुण और सर्वसुख बोधक प्रतीक माध्यात्मिक अनुचिन्तन तथा तत्त्व निरूपण करते समय इन कवियों द्वारा भनेक ऐसे प्रतीकों का भी प्रयोग हुआ है जिन्हें उक्त वर्गीकरण में प्रायः संख्यायित नहीं किया जा सकता। यहां हम जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य कृतियों में ब्यबहत प्रतीकों की स्थिति का अध्ययन शताब्दि कम से करेंगे ताकि उनके विकासात्मक रूप का सहज में उद्घाटन हो सके।
भावान्त मैन-हिन्दी-पूमा-काव्य में अनलिखित आठ प्रतीकों का सातत्य प्रयोगमा है :प्रतीक
प्रतीकार्य जन्म-जरा-मृत्यु-धिनाश के अप में संसारताप के विनाश के अर्थ में
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१. हिन्दी, जन साहित्य परिशीलन, भाग २, डा० नेमी चन्द्र शास्त्री, भारतीय
मानपीठ काशो, प्रथम संस्करण, पृष्ठ १९३ ।