Book Title: Jain Hindi Puja Kavya
Author(s): Aditya Prachandiya
Publisher: Jain Shodh Academy Aligadh

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Page 374
________________ वेदनीयकर्म वैवावृत्य मान्तिपाठ मोषधर्म संनिधान भावना से निर्विकार आत्म-स्वरूप का प्रकट होना ही बोतराग है। जिनके कारण प्राणी को सुख या दुःख का बोष होता है वेदनीय कर्म कहलाते हैं। मुनियों, साधुनों की सेवा करना ही यावृत्य है। सर्वभूत-हित कामना, इसमें शान्तिनाथ भगवान का गुणानुवाद होता है और विश्व में सर्वत्र शान्ति हो यह कामना रहती है, इसे पूजा के उपान्त-प बोलते हैं। शुचिता आत्मा का स्वभाव है, यह स्वभाव ही शौच. धर्म कहलाता है। यह वही जिनेन्द्र हैं, यह वही सुमेरु है, यह वही सिंहासन है, यह वही गरोदधि-जल है, 'मैं साक्षात इन्द्र हूँ"-इस कल्पना के साथ जिन प्रतिमा के सम्मुख/निकट होने को संविधान कहते हैं। के. संनिधापन । सम्यक् प्रकार से नियन्त्रण करना ही संयम है। जीव के रागादिक अशुभ परिणामों के अभाव से कर्म वर्गणाओं के मानव का रुकना संबर कहलाता है। वश्वम्, जीतने का उपादान, जय-उपकरण । इसे सर्वतोभद्र पूजा भी कहते हैं जिसे महामुकुटबन राजाओं द्वारा सम्पन्न किया जाता है। बनेकांतमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्थावार है, स्याद्वाद (सापेमवाद) में कथन के तरीके, डंग, या भंग जो सात-स्याद् अस्ति, स्यादनास्ति, स्थाव. अस्ति-नास्ति, स्याद् अबक्तब्य, स्याद् अस्ति बक्तव्य, स्यादनास्ति अव्यक्तव्य, स्याद् अस्ति-नास्ति बव्यक्तब्य होते है, सप्तभंग कहते है। अपने स्वभाव व गुणपर्यायों में स्थिर रहने को समय संनिधिकरण संयम संवर संबोष सचतुर्मुख पूजा सप्तभंग

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